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करना चाहते थे और वह विकार जैसा कि उक्त कथामें कहा गया है-कुष्ठरोग था। __दूसरे दिन महाराजने जाकर देखा तो वादिराजसूरिका दिव्य शरीर था-उनके शरीरमें किसी व्याधिका कोई चिन्ह नहीं दिखलाई देता था। यह देखकर उन्होंने उस पुरुषकी ओर कोपभरी दृष्टि से देखा निसने कि दरवारमें इस बातका निकर किया था । मुनिराज राजाकी दृष्टिका अभिप्राय समझकर वोले-राजन्, इस पुरुषपर कोप करनेकी आवश्यकता नहीं है । वास्तवमें उसने सच कहा था मैं सचमुच ही कोढ़ी था और उसका चिन्ह अभी तक मेरी इस कनि. ' ष्टिका ( अंगुली ) में मौजूद है । धर्मके प्रभावसे मेरां कुष्ट आज ही दूर हुआ है। इत्यादि । यह सुनकर महाराजको बड़ा आश्चर्य हुआ। मुनिराजपर उनकी बड़ी भक्ति हो गई । मल्लिपेणप्रशस्तिक .. 'सिंहसमर्थ्यपीठविभवः ' विशेषण इसी वातको पुष्ट करता है । ऐसे प्रभावशाली महात्माकी जयसिंहनरेश अवश्य ही भक्ति करते होंगे।
वादिराजसूरि कैसे दिग्गज विद्वान् थे, इस वातका अनुमान पाठक नीचे लिखे हुए पद्योंसे करेंगे । ये पद्य श्रवणवेलगुलके 'मल्लिषेणप्रशस्ति । नामक शिलालेखमें खुदे हुए हैं:
त्रैलोक्यदीपिका वाणी द्वाभ्यामेवोदगादिह । जिनराजत एकस्मादेकस्माद्वादिराजतः ॥१॥ आरुद्धाम्बरमिन्दुविम्वरचितौत्सुक्यं सदा यद्यश
छत्रं वाक्चमरीज-राजिरुचयोऽभ्यर्ण च यत्कर्णयोः । १. यह प्रशस्ति शक संवत् १०५० की लिखी हुई है।