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अनादितत्समाप्तं तु पुराणं दुरितापहम् । जीयादाचन्द्रतारार्क विदग्धजनचेतसि ॥ श्रीजिनसेन रितनुजेन कुदृष्टिमतप्रभेदिना गारुडमंत्रवादसकलागमलक्षणतर्कवेदिना ॥ तेन महापुराणमुदितं भुवनत्रयवर्तिकीर्तिना । प्राकृतसंस्कृतोभयकवित्वधृता कविचक्रवर्तिना ॥ इन श्लोकों से मालूम होता है कि महाकवि मल्लिषेण संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाओंके महाकवि थे-कवियोंके चक्रवर्ती थे, व्याकरण, न्याय, आगम, गारुड मंत्रवाद आदि सब विषयोंके ज्ञाता थे; बड़े २ मिथ्यादृष्टियाँको उन्होंने पराजित किया था और सब ओर उनकी कीर्ति फैल रही थी । शक संवत् ९६९ की ज्येष्ठ सुदी १ को उन्होंने मूलगुंद नामक तीर्थके जिनमन्दिरमें अथवा वसतिकामें महापुराणको समाप्त किया था । यह मूलगुंद नामका ग्राम अब भी है और धारवाड़ जिलेके गदग तालूकामें उसकी गणना की जाती है । पहले शायद यह स्थान वहुत प्रसिद्ध रहा होगा, परन्तु अब नहीं है । उन्होंने आपको श्रीजिनसेनस्रिका पुत्र बतलाया है । इससे जान पड़ता है कि गृहस्थजीवनमें जो इनके पिता होंगे, पीछेसे उन्होंने दीक्षा ले ली होगी और मुनिजीवनमें उनका नाम जिनसेन रक्खा गया होगा । जिनसेन नामके - भी कई आचार्य हो गये हैं, इससे यह पता लगाना कठिन है कि, - इनके पिता कौन थे । आदिपुराण के कर्त्ता भगवज्जिनसेनका समय शक संवत् ७६५ तकका निश्चय हो चुका है, और हरि
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