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महाकवि मल्लिषेण। मल्लिोग नानके पहले वहतसे आचार्य हो गये हैं, और उन-- मसे बहुमसे ऐसे हैं जिन्होंने अनेक प्रन्योंकी रचना भी की है। हम जिन मल्लिपेणके विषयमें लिखना चाहते हैं, उनसे कुछ ही वर्षों पीछे एक माद्धग नामके दूसरे आचार्य हो गये हैं, जो पहले मल्लिरेणी ही श्रेगोके विद्वान थे। इस योडसे अन्तरके कारण अभीतक बहुत लोग दोनोंच्ने एक ही समझते थे । परन्तु अब यह भ्रम दूर हो गया है । पहिले मल्टिपेण उभयभापाकविचक्रवत्तीकै पहले सुशोमित ये और दूसरे मलयारिन् पदसे युक्त थे ।
उभयमाषाविचक्रवर्ती मल्लिोगने महापुराणको प्रशस्तिमें अपना परिचय इस प्रकार दिया है:
तीये श्रीमुलगुन्दनान्निनगरे श्रीजनघालये । स्थित्वा श्रीकविचक्रवतियतिपः श्रीमल्लिपणालयः । संक्षेपात्नयमानुयोगकयनव्याख्यान्वितं नृण्वतां भन्यानां दुरितापहं रविवानिशेषविद्याम्बुधिः॥ वर्षेत्रिंशताहीने सहन्ने शकभूभुजः ।
सर्वजित्सरे ज्येष्ठे सशुक्त पञ्चमीदिने । १. स्वादमंजरीले नि नान मी नादिर ही है, परन्तु वे वान्बर सन्प्रदायने हुए हैं ।२. इस पदका अर्थ उमसने नही साता और भी दो एक विद्वान् इस पदने मोनित रहे हैं, जैसे कि मलमारि श्रीराजशेखरसूरि।