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श्रीवादिराजसूरिके समकालीन कई बड़े २ विद्वान हो गये हैं । श्रीविजयभट्टारककी - जिनका कि दूसरा नाम पण्डितपारिजात था, - स्वयं वादिराजसूरिने एक पद्यमें स्तुति की है । वह पद्य यह है . - यद्विद्यातपसोः प्रशस्तमुभयं श्रीहेमसेने मुनौ प्रागासीत्सुचिराभियोगवलतो नीतं परामुन्नतिम् । प्रायः श्रीविजये तदेतदखिलं तत्पीठिकायां स्थिते 'संक्रान्तं कथमन्यथानतिचिराद्विद्येदृगीदृक्तपः ॥
ये विजयभट्टारक हेमसेन मुनिके पढ़पर बैठे थे । इनकी प्रशंसाका एक श्लोक मल्लिपेणप्रशस्ति में भी मिलता है । इस इलोकसे यह भी मालूम होता है कि उस समयके कोई गंगवंशी नरेश उनके भक्त थे:
गङ्गावनीश्वर शिरोमणिवन्धसन्ध्यारागोल्लसच्चरणचारुनखेन्दुलक्ष्मीः । श्रीशब्दपूर्वविजयान्तविनूतनामा धीमानमानुषगुणोऽस्ततमः प्रमांशुः ॥
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बहुत करके ये गंगवंशीनरेश चामुंडराय महाराज होंगे । क्योंकि चामुंडरायका समय शककी दशवीं शताब्दी ही है । उनका जन्म शक संवत् ९०० में हुआ था । यद्यपि वे महाराज राजमल्लके मंत्री या सेनापति थे तो भी राजा कहलाते थे । वे जैनधर्मके परम भक्त थे, यह तो प्रसिद्ध ही है।
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