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‘वादिराजसूरि केवल कवि ही नहीं थे। वे न्यायादि शास्त्रोंके भी असाधरण विद्वान् थे। तब अवश्य ही उनके बनाये हुए न्याय व्याकरणादि विषयक ग्रन्थ भी होंगे । परन्तु कालके कुटिलचक्रमें पड़कर आज उनका दर्शन दुर्लभ हो गया है । एक सूचीपत्रमें वादिराजके रुक्मणियशोविजय, वादमंजरी, धर्मरत्नाकर, और अकलंकाष्टकटीका इन तीन ग्रन्थोंके नाम और भी मिलते हैं, परन्तु वादिराजनामके और भी कई विद्वान् हो गये हैं, इसलिये निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि वे इन्हीं वादिराजके हैं अथवा किसी अन्यके । __ वादिरानसीरका पार्श्वनाथचरित शक संवत् ९४८ में बना है, यह पूर्वमें कहा जाचुका है; परन्तु शेष ग्रन्थ कत्र वने-प्रशस्तियोंके. अभावसे इस बातका पता नहीं लगता । यशोधरचरितके विषयमें इतना कहा जा सकता है कि वह जयसिंह महाराजके ही राज्यकालमें बना है। क्योंकि उसके तीसरे सर्गके अन्त्यश्लोकमें और चौथे सर्गके. उपान्त्य श्लोकमें कविने चतुराईसे जयसिंहका नाम योनित कर दिया है"व्यातन्वञ्जयसिंहतां रणमुखे दीर्घ दधौ धारिणीम् ।। ८५५ " रणमुखजयसिंहो राज्यलक्ष्मी वभार ।। ७३"
श्रीवादिराजसूरिका निवासस्थान कहां था, उन्होंने कब दीक्षा ली थी और कब तक इस धराधामको अपनी पुण्यमूर्तिसे सुशोभित किया था यह जाननेका कोई साधन प्राप्त नहीं होनेसे खेद है कि इस. विषयमें हम कुछ नहीं लिख सके ।