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एक प्रशंसात्मक श्लोक और भी सुनिए :'सदसि यदकलंङ्कः कीर्तने धर्मकीर्तिर्वचसि सुरपुरोधा न्यायवादेऽक्षपादः । इति समयगुरुणामेकतः संगतानी प्रतिनिधिरिव देवो राजते वादिराजः ॥
( Vide Ins. No. 39, Nagar Falug by Mr. Rice ) अर्थात् वादिराजसूरि सभा में बोलनेके लिये अकलङ्क भट्टके समान हैं, कीर्तिमें धर्मकीर्ति (न्यायविन्दु के कर्त्ता प्रसिद्ध बौद्ध नैयायिक ) के समान हैं, वचनोंमें वृहस्पति ( चार्वाक ) के समान हैं और न्यायवादमें अक्षपाद अर्थात् गौतमके समान है । इस तरह वे ( श्रीवादिराजदेव ) इन जुदा जुदा धर्मगुरुओंके एकीभूत प्रतिनीधिके समान शोभित होते हैं ।
श्रीवादिराजसूरिकी प्रशंसामें ऊपरके श्लोकों में जो कुछ कहा गया है उससे अधिक और क्या कहा जा सकता है ? वह समय सचमुच ही धन्य था जब जैनसाहित्य और जैनधर्मका मस्तक उन्नत करनेवाले ऐसे २ महात्मा जन्म लेते थे ।
वादिराज स्वामीके बनाये हुए केवल चार ग्रन्थोंका पता लगता है- १ एकीभावस्तोत्र, २ यशोधरचरित, ३ पार्श्वनाथचरित, और ४ काकुत्स्थचरित । इनमें से एकीभावस्तोत्र केवल २९ श्लोकोंकी छोटीसी स्तुति है उसका सर्वत्र बहुलतासे प्रचार है । इस स्तोत्रकी कविता बड़ी ही कोमल सरस मधुर और हृदयद्रावक है । दूसरा यशोधरचरित छोटासा चतुःसर्गात्मक काव्य है । इसमें केवल २९६