________________
(१४५) सिंहके दरवारमें जब इस बातका ज़िकर छिड़ा तब वहां बैठे हुए किसी श्रावकने-जो कि वादिराजका भक्त था-पूछनेपर गुरुनिन्दाके भयसे यह कह दिया कि नहीं मेरे गुरु वादिराज कोढ़ी नहीं हैं । इसपर बड़ी जिद्द हुई । आखिर यह ठहरा कि महाराज कल स्वयं चलकर वादिराजको देखेंगे। श्रावक महाशय उस समय कहते तो कह गये पर पीछे वडी चिन्तामें पड़े । और कोई उपाय न देख गुरुके पास जाकर उन्होंने अपनी भूल निवेदन की और कहा अब लज्जा रखना आपके हाथ है । कहते हैं कि उसी समय वादिराजसरिने एकीभावस्तोत्रकी रचना की और उसके प्रभावसे उनका कुष्ठरोग दूर हो गया । एकीभावका चौथा श्लोक यह है,
प्रागेवेह त्रिदिवभवनादेण्यता भव्यपुण्यात्पृथ्वीचक्रं कनकमयतां देव निन्ये त्वयेदम् । ध्यानद्वारं मम रुचिकर स्वान्तगेहं प्रविष्ट
स्तत्किं चित्रं जिन वपुरिदं यत्सुवर्णीकरोपि ॥४॥ अर्थात् हे भगवन् , स्वर्ग लोकसे माताके गर्भ में आनेके छह महीने पहलेहीसे जब आपने पृथ्वीको सुवर्णमयी कर दी, तब ध्यानके द्वारसे मेरे सुन्दर अन्तर्गृहमें प्रवेश कर चुकनेपर यदि
आप मेरे इस शरीरको सुवर्णमय कर दें तो क्या आश्चर्य है ? - वादिराजमारकी इस प्रार्थनासे अनुमान किया जाता है कि अव
श्य ही उनके शरीरमें कुछ विकार हो गया था और वे उसको दूर ': १ एकीभावके तीसरे पांचवें और सातवें श्लोकका भी इसीसे मिलता जुलता भाव है।