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यह राजा बड़ा वीर और प्रतापी था । उसके एक लेखमें नो
कि शक संवत् ९४५ पौष कृष्ण २ का है कि राजाओं के राजा जयसिंहने जो चन्द्र और राजेन्द्रचोल ( परकेसरीवर्मा ) समान था— माल्यावार्लोके सम्मिलित सैन्यका चेर तथा चोल्वालोको सजा दी ।
आगे जो मल्टिपेणप्रशस्तिका कुछ अंश उद्धृत किया गया है, उसके तीसरे पद्यमें जो जयसिंहकी राजधानीको 'वान्वधूजन्मभूमौ ' विशेषण दिया है और दूसरे पद्यनें वादिराजको 'सिंहसमर्चपीठविभवः ' विशेषण दिया है उससे मालूम होता है कि जयसिंह महाराजकी राजधानीमें विद्याकी बहुत चर्चा थी-बड़े बड़े वादी कवि तथा नैयायिक पण्डितोंका वहां निवास था और जयसिंह महाराज वादिराजसूरिक भक्त थे उनकी सेवा करते थे । यद्यपि इस प्रकारका कोई प्रमाण नहीं मिला है कि जयसिंहनरेश जैनी ये या जैनधर्ममें श्रद्धा रखते थे; परन्तु यह बात दृढ़तापूर्वक कही जा सकती है कि जैनधर्मपर और जैनधर्मके अनुयायियोंपर उनकी कृपा होगी । यही कारण है कि वादिराजसूरिपर उनकी भक्ति थी । उसका एकीभावकी
हमारे यहां एक कथा प्रसिद्ध है और संस्कृतटीका तथा और वादिराजसूरिको एक बार
भी कई ग्रन्थोंमें उल्लेख मिलता है कि कुष्टरोग हो गया था । महाराज जय
लिखा हुआ हैं-लिखा भनेरूप कमलके लिये हायीके लिये सिंहके पराजय किया और
१. कई विद्वानोंको इस विषयने सन्देह हैं कि जयसिंहने भोजको हराया था ।
२. देखो, काव्यनाला सुप्तगुच्छक, पृष्ठ १२ को टिप्पणी ।
३. देखो, वृन्दावनविलास पृष्ट ३१ का ३४ व पद्म