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हैं। इस लिये हमें काष्ठासंघको जैनाभास कहना कुछ अटपटा मालूम पड़ता है और दर्शनसार जैसे प्रामाणिक ग्रन्थका प्रमाण पाकर भी हमारे हृदयमें अभी बहुतसे सन्देह विद्यमान हैं। विद्वानोंसे प्रार्थना है कि वे इस विषयका स्पष्टीकरण करके समाजका उपकार करें।
अभीतक हमारे यहां अनेक पुराण ग्रन्थ काष्ठासंघके ही प्रचलित हो रहे हैं, और समाजका बहुत बड़ा भाग इन्हीं ग्रन्थोंकी कथाओंपर श्रद्धानकरनेवाला है। इसके सिवाय अमितगतिश्रावकाचारादि अन्यान्य ग्रन्थ भी काष्ठासंघ और माथुरसंघके प्रचलित हैं, जिन्हें लोग सब प्रकारसे प्रमाण मानते हैं। कोई नहीं कहता है कि ये सब ग्रन्थ जैनामासोंके बनाये हुए हैं । इससे यह जान पड़ता है कि काष्ठासंघ और • मूलसंघमें पहले पहल लगभग विक्रमकी दशवीं शताब्दीमें जो विरोध था, वह आगे वृद्धिंगत नहीं हुआ-धीरे २ घटता गया और इस समय तो उसका प्रायः नामशेष ही हो चुका है। इस समय तेरह
और वीसपंथमें जितना विरोध दिखलाई देता है, हमारी समझमें काष्ठासंघ और मूलसंघमें उतना भी विरोध नहीं रहा है और यदि दोनों संघके अनुयायियोंने बुद्धिमत्तासे काम लिया तो आगे सदाके लिये इस विरोधका अभाव हो जावेगा।
__ इस समय काष्ठासंघके अनुगामियोंको पृथक् छांटना भी कठिन हो गया है। अग्रवाल नरसिंहपुरा मेवाड़ा आदि थोड़ीसी जातियां इस संघकी अनुगामिनी हैं, और उनके भट्टारकोंकी गद्दी दिल्ली, मलखेड़, कारंजा, आदि स्थानोंमें है। परन्तु श्रावकोंमें अक्षतके पहले