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(१३७) प्रतिमाके.लिये निषेध किया। किन्तु लोहाचार्यने यह भी नहीं माना। इसके सिवाय गायकी पूंछकी पिच्छी लेनेकी भी उन्होंने पद्धति चला दी और इन सबका प्रायश्चित् लेनेको भी वे स्वीकृत न हुए। उन्होंने एक स्वतंत्ररूपसे अपने संघकी स्थापना की, जो कि पीछेसे काष्ठासंघके नामसे प्रख्यात हुआ । परन्तु इस कथामें नो लोहाचायके द्वारा इस संघकी स्थापना बतलाई गई है, उसपर विश्वास नहीं किया जा सकता है। यह भी खंडेलवालोंको जैन बनानेकी कयाके समान ऐतिहासिक तत्त्वसे शून्य है । क्योंकि उमास्वामी विक्रमकी 'पहली शताब्दीमें हुए हैं, जिस समय कि दिगम्बर सम्प्रदायमें एक मी मतभेद नहीं हुआ था। उस समय काष्ठासंघका नाम भी नहीं था । विक्रमकी सातवीं शताब्दिके पहलेके किसी भी अन्यमें काष्ठा'संघका नाम नहीं मिलता है। इसके सिवाय श्रीदेवसेनसरिने काठासंघके केवल १५० वर्षे पीछे जो काष्ठासंघकी उत्पत्ति. लिखी है, उसपर जितना विश्वास किया जा सकता है, उतना वचनकोशके कथनपर नहीं हो सकता है। देवसेनसरिका वर्णन विशेष विश्वस्त होनेका एक कारण यह भी है कि उन्होंने कुमारसेनका समय और उसकी गुरुपरम्परा बिलकुल ठीक २ वतलाई है । अन्य ग्रन्थोंके द्वारा भी जिनसेनादिका समय उनके कथनसे वरावर मिलता है । वचनकोशके कर्त्ताने काष्ठासंघके उत्पादक बतलाये तो लोहाचार्यको हैं; परन्तु उनका समय वही विक्रम संवत् ७९३ लिखा है जो कि लोहाचार्यके समयसे किसी भी प्रकार नहीं मिल सकता है । इससे भी वचनकोशकी कथा किसी किंवदन्तीके आधारसे लिखी हुई जान पड़ती