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(१३५) रखनेकी विधिका निरूपण किया। इसके सिवाय उसने छढे गुणस्थानका कुछ और ही स्वरूप निरूपण किया। इसी प्रकार आगम शास्त्र पुराणों और प्रायश्चित्तका कुछ अन्यथा ही निरूपण कर मूढ लोगोमें एक मिथ्यात्वकी प्रवृत्ति कर दी । इस तरह उस श्रमणसंघसे (दिगम्बरसंघसे ) बाहर किये हुए, समयमिथ्यादृष्टी, उपशमको छोड़ देनेवाले रौद्र कुमारसेनने काष्ठासंघकी जड़ जमाई । यह काष्ठासंघ विक्रम राजाकी मृत्युके ७५३ वर्ष पश्चात् नन्दीतट नगरमें उत्पन्न हुआ। __ जयपुरनिवासी पंडित जवाहरलालजी साहित्यशास्त्रीके पत्रसे विदित हुआ कि, वुलाकीचन्द्रकृत वचनकोशमें-जो कि संवत् १७३७ में वना है-काष्ठासंघकी उत्पत्तिके विषयमें एक दूसरे ही प्रकारकी कथा लिखी है। वह इस प्रकार है कि, " उमास्वामीके पट्टपर जो श्रीलोहाचार्यजी विराजमान हुए, उनके शरीरमें एक वार असाध्यरोग हो गया। उससे मुक्त होनेकी आशा न समझकर अन्य आचार्योंने उन्हें अन्त:सन्यास धारण कराके चारों प्रकारके आहारका त्याग करा दिया। परन्तु दैवात्, उनका रोग धीरे २ शमन होने लगा, और अन्तमें वे
१. दर्शनसारकी जो हमारे पास प्रति है, उसकी टिप्पणीमें लिखा है, कि रात्रिभोजनत्यागको छठा गुणव्रत माना; परन्तु यह ठीक नहीं है । धर्मपरीक्षामें पांच अणुव्रत ओर तीन गुणव्रत मूलसंघके समान हीमाने हैं छह गुणवत नहीं माने हैं। किसी २ प्रतिमें गुणद्वदं लिखा है, जिसका अर्थ गुणस्थान होता है। शायद काष्ठासंघमें क्षुल्लको और दीक्षित स्त्रियोंको छठा गुणस्थान माना हो।