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श्रीअमितगतिसूरि। कविकुल-कमल-दिवाकर महाराजाधिराज भोजके समयमें संस्कृत 'विद्याकी जैसी उन्नति हुई थी, उसके पीछे आजतक वैसी उन्नति नहीं हुई । संस्कृतसाहित्यके नामी २ कवि और ग्रन्थकार उसी समयमें हुए हैं । भोजदेवके चाचा महाराजाधिराज मुंज भी कवि और विद्वानोंकी कदर करनेवाले थे । यद्यपि भोजके समान इस विषयमें उनकी विशेष ख्याति नहीं है तो भी वे सरस्वतीके आलम्बन समझे जाते थे । संस्कृतकी मुरझाई हुई लताको उन्होंने चैतन्य किया था और फिर महाराज भोजने उसका भलीभांति रक्षण पोषण किया था। महाराज मुंजकी मृत्युके पश्चात् कहा गया था, - - लक्ष्मीर्यास्यति गोविन्दे वीरश्री:रवेश्मानि । • गते मुझे यशःपुञ्जे निरालम्वा सरस्वती ।
अर्थात् " यशपुंज महाराज मुंजकी मृत्युके पश्चात् लक्ष्मी तो गोविन्दके चली जायगी और वीरलक्ष्मी वीरोंके महलोंमें चली जावेगी; परंतु बेचारी सरस्वतीका कोई नहीं है । वह निराश्रिता हो जावेगी !" इस उक्तिके पढ़नेसे मुंजकी गुणग्राहकताके विषयों कोई सन्देह नहीं रहता है। .
१. मुंजके वाक्पतिराज और अमोघवर्ष ये दो नाम भी प्रसिद्ध हैं। प्रश्नोत्तररलमालिकाके कर्ता तथा भगवज्जिनसेनके शिष्य महाराजा अमोचवर्ष इनसे भिन्न हैं । वे रष्ट्रकूट वंशके राजा थे। उनका राज्यकाल शक संवत् .७३७ से ८०० तक माना जाता है।