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इस ग्रन्थमें अध्यात्मकी ओर विशष झुकाव दिखता है इससे तथा अपने नामके साथ जो वीतराग विशेषण दिया है, इससे अनुमान होता है कि यह ग्रन्थ पहले ग्रन्थोंके बहुत पीछे वना होगा।
पांचवां ग्रन्थ पंचसंग्रह है। इसकी एक प्रति ईडरके ग्रन्थसंग्रहालयमें संवत् १५३४ की लिखी हुई है। हमको उसकी प्रशस्ति मात्र प्राप्त हुई है । वह इस प्रकार है.
श्रीमाथुराणामनघद्युतीनां संघोऽभववृत्तिविभूपितानाम् • हारोमणीनामिव तापहारी सुत्रानुसारीशशिरश्मिशुभ्रः॥१॥ माधवसेन गणी गणनीयः शुद्धतमोऽजनि तत्र जनीयः । भूयसि सत्यवीव शशांकः श्रीमति सिन्धुपतावकलंकः ॥२॥ शिष्यस्तस्य महात्मनोऽमितगतिर्मोक्षार्थिनामग्रणिरेतच्छास्त्रमशेषकर्मसमितिप्रख्यापनायाकृत । वीरस्येव जिनेश्वरस्य गणभृद्भ (व्यात्मनां ) व्यापकोदुर्वारस्मरदन्तिदारुणहरिः श्रीगौतमः सत्तमः ॥३॥ यदत्र सिद्धान्तविरोधि वद्धं ग्राह्यं निराकृत्य तदेतदायैः। गृहन्ति लोका हयुपकारि यत्नात्वचं निराकृत्य फलं विनम्र॥
१. इस श्लोकमें माथुर संघको मणियोंके हारकी उपमा दी है और उसे दोनों पक्षमें घटित की है । पापरहित प्रकाशवाले ( निर्मल कान्तिवाले ) वृतों करके शोभायमान (वृत्तरूप अर्थात् गोलमणियोंसे शोभायमान ) तापको हरन करनेवाला, सूत्र अर्थात् सिद्धान्त वचनाका अनुसरण करनेवाला (सूत्र अर्थात सूतमें पोया हुआ) और चन्द्रमाकी. किरणोंके समान उज्वल माथुरसंघ मणियोंके हारकी समान उत्पन्न हुआ।