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(११३) भावार्थ-मुझ आशाधरने यह अनगारधर्मामृतकी मुनियोंको प्यारी लगनेवाली और यतिधर्मका प्रकाश करनेवाली स्वोपनटीका वनाई । यदि इसमें कहींपर कुछ शब्द अर्थमें भूल हुई हो तो उसे मुनिजन पंडितजन संशोधन करके पढ़ें; क्योंकि मैं छद्मस्य हूं। नलकच्छपुरमें ( नालछेमें ) पापानामके एक सज्जन . जैनी हैं, जो कि खंडेलवालवंशके हैं, नगरके अगुए हैं, जिनपूजा कृपादानादि करनेमें तत्पर हैं, विनयवान् हैं, पापसे पराङ्मुख हैं और श्रीमान् हैं। उनके दो पुत्र हैं एक बहुदेव और दूसरे पद्मसिंह । वहुदेवके तीन पुत्र हैं-हरदेव, उदय और स्तंभदेव (द)। ___ धर्मामृत ग्रन्थके सागारभागकी टीका महीचन्द्र नामके साधुने वालबुद्धि जनोंके समझानेके लिये बनवाई और उसी धर्मामृतके अनगारमागकी टीका वनानेके लिये हरदेवने प्रार्थना की और धनचन्द्रने आग्रह किया । अतएव इन दोनोंकी प्रार्थना और आग्रहसे पण्डित आशाधरने यह टीका जिसका कि नाम भन्यकुमुदचन्द्रिका है कुशाग्रबुद्धिवालोंके लिये वनाई । यह मोक्षाभिलाषी जीवोंके द्वारा पठन-पाठनमें आती हुई कल्पान्त कालतक ठहरे।
परमार वंशीय महाराज देवपालके पुत्र जैतुगिदेव जिस समय अवन्ती (उज्जैनमें ) राज्य करते थे, उस समय यह टीका नल{ कच्छपुरके नेमिनाथ भगवान्के चैत्यालयमें वि० संवत् १३०० के
कार्तिक मासमें पूर्ण हुई। इसमें लगभग बारह हजार श्लोक “( अनुष्टप् ) हैं।