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मिलता है । यह सारा काव्य अनुष्टप श्लोकोंमें लिखा गया है । अनुप होकर भी यह गंभीर है। इसकी भाषा पंडित वख्तावरमल रतनलालने बनाई है । यह भाषा मुंशी अमनसिंहजीने छपवाई थी । अनुवादक महाशय संस्कृतके विद्वान नहीं थे, इसलिये अनुवाद जैसा होना चाहिये वैसा नहीं हुआ है और वहुतसी जगह भाव भी लिखनेसे रह गया हैं ।
एक भावसंग्रह नामका ग्रन्थ भी गुणभद्राचार्यका बनाया हुआ कहा जाता है, परन्तु अभीतक हमें उसके दर्शन नहीं हुए हैं ।
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श्रीयुक्त तात्या नेमिनाथ पांगलने मराठीके 'विविधज्ञानविस्तार ' नामक मासिकपत्रमें गुणभद्रस्वामीके विषयमें एक दन्तकथाका उल्लेख किया है । यद्यपि ठीक ऐसी ही कथा सुप्रसिद्ध कवि बाणभट्ट के विषयमें भी सुनी जाती है और विद्वानोंमें उसका प्रचार भी विशेषतासे है, इससे उसके सत्य होनेमें भी सन्देह है; तो भी हम पाठकोंके जाननेके लिये यहां उसे उद्धृत कर देते हैं:
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“ जिस समय जिनसेनस्वामीको ज्ञात हुआ किं, अब मेरा अन्तः समय निकट है और महापुराणको मैं पूरा नहीं कर सकूंगा; तब उन्होंने इस बातकी चिन्ता की कि मेरे शिष्यों में ऐसा कौन है, जो इस ग्रन्थको योग्यताके साथ पूर्ण कर देगा ? और अपने दो
१. बाणभट्ट जव अपनी अधूरी कादम्बरीको छोड़कर मृत्युशय्यापर पड़े थे, तब उन्होंने भी अपने दो पुत्रोंसे इसी प्रकार पूछा था और ऐसा ही उत्तरं
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पाया था ।