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पढ़ानेकी शक्ति और परोपकारशीलता कैसी थी। गृहस्थ होने पर भी बड़े २ मुनि उनके पास विद्याध्ययन करके अपनी विद्यातृष्णाको पूर्ण करते थे । उस समयके इतिहासकी यह एक विलक्षण घटना है, जो नीतिके इस वाक्यको स्मरण कराती है- " गुणाः पूजास्थानं गुणिषु न च लिङ्गं न च वयः " अर्थात्, गुणवानोंमें उनके गुण ही पूजने के योग्य होते हैं, उनकी उमर अथवा वेप नहीं ।
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विन्ध्यवर्माका और उनके पीछे उनके पुत्र सुभटवर्माका राज्यकाळ समाप्त हो चुकने पर आशाधरने धारानगरीको छोड़ दी और नलकच्छपुरको अपना निवासस्थान बनाया । नलकच्छपुरमें आ रहनेका कारण उन्होंने अपने प्यारे धर्मकी उन्नति करना बतलाया है, - श्रीमदर्जुनभूपालराज्ये श्रावकसंकुले |
जिनधर्मोदयार्थ यो नलकच्छपुरेऽवसत् ॥ ८ ॥ इससे यह भी अनुमान होता है कि वे धारासे अकेले आये होंगे । गृहस्थाश्रमसे उन्होंने एक प्रकार से सम्बन्ध छोड़ दिया होगा ।
- नलकच्छपुरको इस समय नालछा कहते हैं । यह स्थान धारसे १० कोसकी दूरीपर है । सुना है, इस समय वहांपुर जैनियोंके थोडेसे घर और जैनमंदिर हैं । परन्तु आशाधरके समय वहांपर जैनियोंकी बहुत बड़ी बस्ती थी । जैनधर्मका जोर शोर भी, वहा बहुत होगा । ऐसा हुए विना आशाधर सरीखे विद्वान् धारा जैसी महानगरीको छोड़कर वहां रहनेको नहीं जाते । अवश्य ही वहांपर जैनधर्मकी उन्नति करनेके लिये धारासे अधिक साधन एकत्र होंगे।
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