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(८६) राजा था। तृतीय कृष्णराजके दानपत्रमें जो कि वर्धा नगरके समीपएक कुएमें प्राप्त हुआ है-इसकी इस प्रकार प्रशंसा लिखी है
तस्योत्तर्जितगूर्जरो हृतहटल्लासोद्भटश्रीमदो गौडानां विनयव्रतार्पणगुरुः सामुद्रनिद्राहरः । द्वारस्थाङ्गकलिङ्गगाङ्गमगधैरभ्यचिंताज़चिरं
मूनुः मुनृतवाग्भुवः परिदः श्रीकृष्णराजोऽभवत् ।। इसका अभिप्राय यह है कि उस अमोघवर्षका पुत्र श्रीकृष्णराज हुआ जिसने गुर्जर, गौड, द्वारसमुद्र, अंग, कलिंग, गंग, मगध आदि देशोंके राजाओंको अपने वशवर्ती वा आज्ञानुवर्ती किये थे । गुणभद्रस्वामीने भी उत्तरपुराणके अन्तमें इस राजाकी बहुत प्रशंसा की है। दो श्लोक यहां उद्धृत किये जाते हैं___ यस्योत्तुंगमतंगजा निजमदस्रोतस्विनीसंगमा
द्गाङ्गं वारि कलङ्कितं कटु मुहुः पीत्वाप्यगच्छत्तृपः । कौमारं धनचन्दनं वनमपां पत्युस्तरंगानिलमन्दान्दोलित (१) भास्करकरच्छायं समाशिश्रियन् ॥२६॥ दुग्धाब्धौ गिरिणा हरौ हतसुखागोपीकुचोधनः पप्ले भानुकमिदेलिमदले वासायसंकोचने।। यस्योरः शरणे प्रथीयसि भुजस्तम्भान्तरोत्तम्भितस्थेये हारकलापतोरणगुणे श्रीः सौख्यमागाचिरम् ॥२७॥
यह नहीं कहा जा सकता है कि अमोघवर्षके समान अकाल वर्ष भी जैनधर्मका श्रद्धालु था या नहीं। क्योंकि इस विषयका हमें अभी तक कोई उल्लेख नहीं मिला है । पर उसका सामन्त