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( ९५) अर्जुनवर्मा । " अर्जुनवर्माके कोई पुत्र नहीं था । इसालय उसके पीछे अनयवर्माके भाई लक्ष्मीवर्माका पौत्र देवपाल (साहसमल्ल ) और देवपालके पीछे उसका पुत्र जैतुगिदेव (जयसिंह ) राजा हुआ । आशाधर जिस समय धारामें आये, उस समय विन्ध्यवर्माका राज्य था और वि० सं० १२९६ में जब उन्होंने सागारधर्मामतकी टीका वनाई, तव जैतुगिदेव राजा थे । अर्थात् वे अपने समयमें धाराके सिंहासनपर पांच राजाओंको देख चुके थे। केवल ६० वर्षके वीचमें पांच राजाओंका होना एक आश्चर्यकी वात है ! आशा. धरका विद्याभ्यास समाप्त होते होते उनके पाण्डित्यकी कीर्ति चारों
ओर फैलने लगी। उनकी विलक्षण प्रतिभाने विद्वानोंको चकित स्तंमित कर दिया। विन्ध्यवर्माके सान्धिवैग्रहिक मंत्री ( फारेन सेक्रेटरी) विल्हण नामके एक महाकवि थे। उन्होंने आशाधरकी विद्वत्तापर मोहित होकर एकवार निम्नलिखित श्लोक कहा था,"आशाधर वं मयि विद्धि सिद्धं निसर्गसौन्दर्य्यमजर्यमार्य। सरस्वतीपुत्रतया यदेतदर्थे परं वाच्यमयं प्रपञ्चः ॥
जिसका आशय यह है कि "हे आशाधर ! तथा हे आर्य ! तुम्हारे साथ मेरा स्वाभाविक सहोदरपना (भ्रातृत्व ) और श्रेष्ठ मित्रपना है । क्योंकि जिस तरह तुम सरस्वतीके (शारदाके) पुत्र हो उसी तरह मैं भी हूँ । एक उदरसे पैदा होनेवालोंमें मित्रता और भाईपना होता ही है।" इस श्लोकसे इस वातका भी पता लगता है
१-इत्युपश्लोकितो विद्वद्विल्हणेन कवीशिना।
श्रीविन्ध्यभूपतिमहासान्धिविग्रहकेण यः ॥ ७ ॥