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: प्रियामनुभवत्स्वयं भवति कातरं केवलं परेष्वनुभवत्सु तां विषयिषु स्फुटं ल्हादते । मनो ननु नपुंसकं त्विति न शब्दतश्चार्थतः
सुधीः कथमनेन सन्नुभयथा पुमान् जीयते ॥ १३७ ॥ मन केवल शब्दसें ही नपुंसक नहीं है, किन्तु अर्थसे भी है। क्योंकि यह स्वयं तो स्त्रीको भोग नहीं सकता है, केवल कायर होता है
और दूसरोंको अर्थात् स्पर्शादि इन्द्रियोंको भोगते देखकर प्रसन्न होता है। तब ऐसा नपुंसक मन सुधी (बुद्धिमान् ) पुरुषको जो कि शब्दसे
और अर्थसे सर्वथा पुल्लिंग है, कैसे जीत सकता है ? अभिप्राय यह कि मनको वलवान् समझकर उसके जीतनेका उपाय करनेमें त्रुटि नहीं करनी चाहिये। ..
ज्ञानमेव फलं ज्ञाने ननु श्लाघ्यमनश्वरम् । . __ अहो मोहस्य माहात्म्यमन्यदप्यत्र मृग्यते ॥ १७५ ॥
ज्ञानका फल ज्ञान ही है, जो कि सर्वथा प्रशंसा योग्य और अविनाशी है। इसको छोड़ जो उससे दूसरे सांसारिक फलोंकी इच्छा की जाती है, सो अवश्य ही मोहका वा मूर्खताका माहात्म्य है। अभिप्राय यह कि ज्ञान होनेसे निराकुलतारूप जो सुख होता है, उसे छोड़कर लोग विषयसुखोंको टटोलते हैं, सो मूर्खता है।
जिनदत्तचरित-बड़नगरमें मलूकचन्द्रजी हीराचन्द्रके मन्दिरमें है। उसकी संस्कृत शैली बड़ी.अच्छी और प्रौद है । इस छोटेसे "नव सात्मक काव्यसे गुणभद्राचार्यके पाण्डित्यका पूर्ण परिचय