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है।" और उत्तरपुराणकी प्रशस्तिमें लोकसेनमुनिको विदितसकलशास्त्र, मुनीश, कवि, अविकलवृत्त आदि विशेषण दिये गये हैं । इससे यह कल्पना हो सकती है कि, उत्तरपुराण वननेके समय यदि लोकसेन 'विदितसकलशास्त्र' थे, तो फिर उसके पश्चात् उन्हें संवोधनकी उतनी आवश्यकता नहीं थी, जितनी कि इस विशेषणके योग्य होनेके पहिले थी । अतएव जबतक और कोई वाधक प्रमाण न मिले तबतक यह मान लेना कुछ अनुचित नहीं दिखता है कि, आत्मानुशासन उत्तरपुराणके पहिले वना है। ___ आत्मानुशान आत्माका शासन करनेके लिये-उसको वशीभूत करनेके लिये न्यायी शासकके समान है। अध्यात्मके प्रेमी इसके अध्ययनसे अभूतपूर्व शान्ति लाभ करते हैं। इसकी रचना
शैली भर्तृहरिके वैराग्यशतकके ढंगकी है और उसीके समान प्रभावशालिनी भी है । थोड़ेसे पद्य यहां उद्धृत कर दिये जाते हैं
हे चन्द्रमः किमिति लाञ्छनवानभूस्त्वं तद्वान् भवः किमिति तन्मय एव नाभूः । किं ज्योत्स्नयामलमलं तव घोषयन्त्या
स्वभौनुवन्ननु तथा सति नाऽसि लक्ष्यः॥ २४१ ॥ अर्थात्-हे चन्द्रमा ! तू कालिमारूप थोडेसे कलंकसे युक्त क्यों हुआ ? यदि कलंकवान् ही होना था, तो सर्वथा कलंकमय ही क्यों न हुआ ? तेरी इस चांदनीसे जो कि तेरे कलंकको और भी
१. यह ग्रन्य भाषार्टीका सहित. छप चुका है। सनातन नग्रन्थमालाके प्रथम गुच्छकमें मूलमात्र भी छपा है। . . .