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रानी जैसे अपनी पुत्रीको केवल उत्पन्न करती है - पालती नहीं उसी प्रकारसे मेरी बुद्धि इस काव्यरूपी कृतिको केवल उत्पन्न करेगी । परन्तु उसका पालनपोषण दाईके समान कवीश्वरोंकी बुद्धि ही करेगी ।
सत्कवैरर्जुनस्येव शराः शब्दास्तु योजिताः ।
कर्ण दुस्संस्कृतं प्राप्य तुदन्ति हृदयं भृशम् ॥ ३४ ॥ अर्जुनक छोड़े हुए वाण जिस तरह दुस्संस्कृत अर्थात् दुस्सासनके बहकाये हुए कर्णके हृदयमें अतिशय पीड़ा उत्पन्न करते थे, उसी प्रकारसे सत्कविके योजित किये हुए शब्द दुस्संस्कृत अर्थात् बुरे संस्कारोंवाले पुरुषोंके कानोंके समीप पहुंचकर उनके हृदयमें चुभते हैं - उन्हें बुरे लगते हैं ।
पुराणं मार्गमासाद्य जिनसेनानुगा ध्रुवम् ।
भवावधेः पारमिच्छन्ति पुराणस्य किमुच्यते ॥ ४० ॥ भगवान् जिनसेनके अनुयायी उनके पुराणके मार्गके आश्रयसे -संसाररूपी समुद्रके भी पार पहुंचनेकी इच्छा करते हैं, फिर मेरे लिये इस पुराणसागरका पार करना क्या कठिन है ? अर्थात् यह तो सहज ही पूरा हो जायगा ।
गुणभद्रस्वामीके बनाये हुए अभीतक तीन ग्रन्थ प्राप्य हैं, एक आंदिपुराणका शेषभाग तथा उत्तरपुराण, दूसरा आत्मानुशासन और तीसरा जिनदत्त चरित्र । इनमेंसे आदिपुराणके शेष भागके, विपयमें तो ऊपर कहा जा चुका है । उत्तरपुराणका अभीतक मैंने स्वाध्याय नहीं किया है । इसलिये उसकी विशेष आलोचना तो नहीं
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