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(७१) विचारसे इसकी कवितामें जो सुन्दरता, कोमलता और स्वाभाविकता है, वह पार्श्वभ्युदयमें भी नहीं है। ___ आदिपुराणके अन्तके ५ सर्ग गुणमद्रस्वामीके बनाये हुए हैं, ऐसा पूर्वमें कहा जा चुका है । ये पांच सर्ग आदिपुराणमें शामिल करनेके सर्वथा योग्य हुए हैं। अपने पूज्य गुरुकी कविताकी समता करनेमें गुणभद्रस्वामीने वैसी ही सफलता प्राप्त की है, जैसी कि वाणमट्टके पुत्रने अपने पिताकी अधूरी कादम्बरीको पूर्ण करनेमें पाई है। यह कार्य गुणभद्रके सिवाय दूसरेसे शायद ही ऐसा अच्छा होता । यह लेख इच्छासे बहुत अधिक बढ़ गया है, इसलिये गुणभद्रस्वामीका कवित्व कैसा है यह बतलानेके लिये अधिक स्थान न रोक कर हम उस भूमिकाक्रे थोडेसे श्लोक ही यहां उद्धृत कर देते हैं, जो कि उन्होंने आदिपुराणका शेष माग पूर्ण करनेका प्रारंभ करते समय लिखे हैंनिर्मितोऽस्य पुराणस्य सर्वसारो महात्मभिः । तच्छेपे यतमानानां प्रसादस्येव नः श्रमः ॥ ११ ॥
अर्यात् इस पुराणका मुख्य सारमाग महात्मा जिनसेन बना चुके हैं । अब उसके शेष भागको पूरा करनेका हमारा परिश्रम वैसा ही है, जैसा एक महलके थोड़ेसे बाकी रहे कार्यको पूरा करना । इक्षोरिवास्य पूर्वाद्धमेवाभावि रसावहम् ।
. यथा तथाऽस्तु निप्पचिरिति प्रारभ्यते मया ॥ १४ ॥ . जिस तरह गन्नेका पूर्वभाग ( नीचेका हिस्सा ) अतिशय रसीला होता है, उसी प्रकारसे इस आदिपुराणका पूर्वमाग हुआ है। अब