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(६०) पहला:' नहीं, किन्तु 'मुख्य' करना चाहिए । श्रीयुक्त कुप्पूस्वामीने इसका अर्थ 'पहला' करके जीवंधरचरित्रकी भूमिकामें लिख दिया है कि, " जिनसेनाचार्यः पुराणकृतामादिमो जैनेषु ।" अर्थात् जैनपुराण वनानेवालोंमें जिनसेन सबके पहिले हैं । परंतु यह एक भ्रम है। जिनसेनस्वामीके पहिले जैनियोंमें कई पुराणकर्ता हो गये हैं। हां! यह वात दूसरी है कि, आदिपुराण उन सम्पूर्ण पुराणोंमें अपने ढंगका सबसे प्रधान ग्रन्थ बना और यही अभिप्राय हस्तिमल्लके दिये हुए 'प्रथम' पदसे सूचित होता है । जिनसेनस्वामीके शिष्य गुणभद्राचार्य उत्तरपुराणकी प्रशस्तिमें स्वयं इस बातको स्वीकार करते हैं कि, आदिपुराणको जिनसेनस्वामीने कविपरमेश्वर नामके कविकी बनाई हुई गद्यकथाके आधारसे बनाया है। देखिये, प्रशस्तिका १६ वा श्लोकः--
कविपरमेश्वरनिगदितगद्यकथामातृकं पुरोश्चरितम् । सकलछन्दोलङ्कृतिलक्ष्यं सूक्ष्मार्थगूढपदरचनम् ॥
कविपरमेश्वर जिनका दूसरा नाम कविपरमेष्ठी भी है, कर्नाटक प्रान्तमें एक बड़े नामी कवि हो गये हैं। कर्नाटककविचरित्र नामक ग्रन्थके कती कहते हैं कि, कनडीके सुप्रसिद्ध कवि आदिपंपने उनकी बड़ी प्रशंसा की है। और पंपकवि ही क्यों, आदिपुराणमें स्वयं जिनसेनस्वामीने उनको पूज्य मानकर स्मरण किया है. . . स पूज्यः कविभिलोके कवीनां परमेश्वरः।
वागर्थसंग्रहं कृत्स्नं पुराणं यः समग्रहीत् ॥ ६०॥