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इसके सिवाय यह भी तो सोचना चाहिये कि, योगिराट्र पंडिताचार्य जिनसेनके समयकालीन तो थे ही नहीं, उनसे लगभग आठ सौ वर्ष पीछे हुए हैं और दूसरे किसी ग्रन्थकारने इस कथाका उल्लेख किया नहीं है, तब यह कैसे कहा जा सकता है कि यह कथा सर्वथा विश्वसनीय है? जनश्रुतियोंके आधारसे लिखी हुई कथाओं में ऐसी भूलें बहुधा हुआ करती हैं । जो हो, पार्श्वाभ्युदयकी रचना चाहे जिस कारणसे हुई हो; कालिदासको लज्जित करनेके लिये हुई हो अथवा अपना पाण्डित्य प्रगट करनेके लिये हुई हो परन्तु इसमें संदेह नहीं है कि, वह संस्कृतसाहित्यका एक कौतुकजनक रत्न है ।
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आदिपुराण -- महापुराणके दो भाग हैं । पहिले भागका नाम आदिपुराण है और दूसरेका उत्तरपुराण । आदिपुराणमें मुख्यतः प्रथम तीर्थंकर और प्रथम चक्रवर्तीका चरित्र है और उत्तरपुराणमें शेष २३ तीर्थकरोंका तथा चक्रवर्ती नारायण आदि शलाका पुरुषका चरित्र है। पूरे महापूराणमें चौवीस तीर्थकर, बारह चक्रवर्ती, नौ नारायण, नौ प्रतिनारायण, और नौवलभद्र इन ६३ शलाकापुरुषका चरित्र है। दिगम्बर सम्प्रदायमें प्रथमानुयोगका यह सबसे प्रधान ग्रन्थ
। हमारे यहां जितने पुराण, काव्य, नाटक, आदिके ग्रन्थ हैं, उन सबकी कथाएँ प्रायः इसी महापुराणसे ली गई हैं । महापुराणकी श्लोकसंख्या २० हजार है, जिसमेंसे १२००० श्लो
१. पार्श्वाभ्युदयकी टीकामें ' रत्नमाला ' नामके कोशके जगह २ प्रमाण दिये हैं और रत्नमालाका कर्त्ता ' इग्दण्डनाथ' नामक जैनविद्वान् विजयनगरनरेश हरिहरराजके समय शंकसंवत् १३२१ में हुआ है और इससे पीछे योगिराट् पंडि ताचार्य हुए होंगे ।
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