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(६५) इसका वर्णन बहुत ही अच्छा है । इसके पढ़नेसे सारे शास्त्रोंके उत्कृष्ट पदार्थ साक्षात् हो जाते हैं अर्थात् इसमें सम्पूर्ण शास्त्रोंके रहस्यका संग्रह है। दूसरे कान्योंको यह तिरस्कृत करता है अर्थात् इसके समान और कोई अच्छा काव्य नहीं है। यह श्रवण करनेके योग्य है वा अन्य काव्य है और विद्वानोंके ग्रहण करने योग्य है, मिथ्या कवियोंके अभिमानको यह नष्ट कर देता है और बहुत ही सुन्दर है। इसे सिद्धान्तकी टीका करनेवाले और चिरकाल तक शिष्योंका शासन करनेवाले जिनसेनस्वामीने बनाया था। इसका अवशिष्ट भाग (५ पर्व) निर्मल बुद्धिशाली गुणभद्रसूरिने बहुत विस्तारके मयसे और हीनकालके अनुरोधसे थोड़े संग्रह किया। एक और कविने कहा है:
यदि सकलकवीन्द्रप्रोक्तसूक्तप्रचार- , श्रवणसरसचेतास्तत्त्वमेवं सखे स्याः। कविवरजिनसेनाचार्यवक्रारविन्द-
. प्रणिगदितपुराणाकर्णनाभ्यर्णकर्णः ॥ . अर्थात्-हे मित्र ! यदि तुम सारे कवियोंकी सूक्तियोंको सुनकर सरस हृदय बनना चाहते हो, तो कविवर जिनसेनाचार्यके मुखकमलसे उदित हुए आदिपुराणके सुननेके लिये अपने कानोंको समीप लाओ। . समग्र महापुराणकी प्रशंसामें कहा है:
धर्मोत्र मुक्तिपदमत्र कवित्वमत्र ... तीर्थेशिनां चरितमत्र महापुराणे ।