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जिस सुन्दर दन्तोंवाली वसुंधराको मैंने ( कमठने ) दृषित की थी
और जो मेरे आनेके दिनोंकी गिनती किया करती थी, उसका अज्ञातभावसे ध्यान करता है । इसमें सन्देह नहीं है। ___ पार्श्वभ्युदयकी कविताकी वानगीके लिये हम समझते हैं कि इतने श्लोक वस होंगे । काव्यमर्मज्ञ पाठकोंसे यहां हम एक प्रार्थना कर देना उचित समझते हैं कि, जिस समय आप पार्वाभ्युदयकी तुलना किसी दूसरे ग्रन्यसे करें, उस समय इस वातको न भूल जावें कि, इसकी रचनामें कवि अपनी कल्पनाको बहुत ही परिमित और संकुचित क्षेत्रमें रखनेके लिये विवश हुआ है। आपको यह देखना चाहिये कि, समस्याके एक नियमित प्रदेशमें इस महाकविकी प्रतिमा और कल्पनाने कैसा मनोहारी नृत्य किया है। यदि आप ऐसा न करेंगे, और किसी स्वतंत्र काव्यके साथ इसको भी स्वतंत्र कान्य मानकर तुलना करेंगे, तो आपकी तुलना न्यायसंगत नहीं होगी। हमको विश्वास है कि, यदि आप इस काव्यको सच्चे समालोचकके नेत्रोंसे देखेंगे, तो योगिराट् पंडिताचार्यके इस श्लोकको दुहराये विना नहीं रहेंगे कि:
श्रीपाश्चात्साधुतः साधुः कमठात्खलतः खलः।
पाश्वाभ्युदयतः काव्यं न च कचिदपीण्यते ॥ १७ ।। अर्थात्-श्रीपार्श्वनाथसे बढ़कर कोई साधु, कमठसे बढ़कर कोई दुष्ट और पार्थाभ्युदयसे बढ़कर कोई काव्य नहीं दिखलाई देता है। . पार्वाभ्युदय काव्य अमोघवर्षके राज्यकालमें वना है, ऐसा उसकी अन्तःप्रशस्तिके श्लोकसे विदित होता है