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" यत्र स्त्रीणां हरति सुरतिग्लानिमङ्गानुकूल:
शिपावातः प्रियतम इव प्रार्थनाचाटुकारः॥" ११२॥ - अर्थात्-उस नगरीमें पानीकी लहरोंके संयोगसे शीतल रहनेवाला, पानीके विन्दुआको अपने साथ उड़ानेवाला, और बगीचोंको कम्पायमान करनेवाला शिप्रानदीका वायु मतवाले भौरों सरीखा शब्द करता हुआ चलता है और सुरतक्रीडा करनेके लिये चाटुकार ( खुशामद ) करनेवाले पतिके समान स्त्रियोंके अंगोंसे लगकर उनके ( पूर्वकृत ) सुरतक्रीड़ाके खेदको दूर कर देता है ।
चित्रं तन्मे यदुपयमनानन्तरं विप्रयुक्ता त्वत्तः साध्वी सुरतरसिका सा तदा जीवतिस्म । मन्ये रक्षत्यसुनिरसनाद्धातुमापद्गताना--
"माशावन्धः कुसुमसदृशं प्रायशो ह्यङ्गनानाम् ॥३५॥ शम्बर (कमठचर ) यक्ष पार्श्वनाथस्वामीसे कहता है-मुझे यह आश्चर्य मालूम होता है कि विवाहके पश्चात् तुझसे जुदी हो जानेपर तेरी सुरतरसिका और साध्वी स्त्री ( वसुंधरा ) जीती वनी रही । यद्यपि दुखिनी स्त्रियोंका आशारूपी बंधन फूलके समान कोमल होता है । परन्तु मैं तो समझता हूं कि उनके प्राणोंको नकलनेसे वही वचा लेता है।
त्वत्सादृश्यं मनसि गुणितं कामुकीनां मनोहृत् कामावाधां लघयितुमथो दृष्टुकामा विलिख्य । यावत्पीत्या किल बहुरसं नाथ पश्यामि कोणै. "रस्तावन्मुहुरुपचितैदृष्टिरालुप्यते मे॥" : सर्ग ना