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• अब प्रस्तुत विषयपर आइये । इससे शकसंवत् ७९९ तक। जिनसेनस्वामी स्वामी थे, इस विषयमें कोई सन्देह नहीं रहा । अब यह देखना है कि, आगे वे और कबतक इस धराधामको पवित्र करते रहे हैं।
हमारी समझमें आदिपुराणकी रचना जयपवला टीकाके पूर्ण हो चुकनेके पश्चात् हुई हैं। क्योंकि आदिपुराणकी प्रस्तावना जिस समय लिखी गई है, उस समय वीरसेनस्वामी सिद्धान्तशास्त्रोंकी. दोन टीकाओंके कर्ता कहलतेथेऔर स्वर्गवास कर चुके थे, ऐसा निम्नलिखित . श्लोकसे अनुमान होता है:
सिद्धान्तोपनिवन्धानां विधातुर्मदगुरोश्चिरम् । . मन्मनःसरासि स्थेयान्मृदुपादकुशेशयम् ।। ५७ ॥ __ इस श्लोकका अर्थ पहले लिखा जा चुका है। इसमें जो 'सिद्धान्तोंको टीकाएं बनानेवाले' विशेण दिया है, वह यदि आदिपुराण जयधवला टीकासे पहले बना होता, तो नहीं दिया जाता । वीरसेनस्वामी 'टीकाएं ' वना चुके थे, इसीलिये दिया गया है और, 'उनके कोमल चरण कमल मेरे हृदयसरॉवरमें ठहरें ऐसी जो आकांक्षा की गई है, उससे ध्वनित होता है कि, वीरसेनस्वामीका स्वर्गवास हो चुका था, क्योंकि परलोकगत अवस्थामें ही गुरुके चरण स्मरण किये जाते हैं। इसके सिवाय जव महापुराण अधूरा छोड़के ही जि नसेनस्वामी स्वर्गवास कर गये हैं, तब स्वयं ही सिद्ध है कि, महापुराण उनकी सबसे पिछली रचना है। जयधवला टीका उससे बहुत पहले बन चुकी होगी।