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(४१) धर्मके सहोदर कीर्तिपेण आचार्य हुए, जो शांत, पूर्णबुद्धि, तपस्वी, और 'धर्मके मूर्तिमंत शरीर थे। इन कीर्तिषेणके मुख्य शिष्य और नेमिनायके भक्त जिनसेनसरिने अपनी अल्पबुद्धिके अनुसार यह हरिवंशपुराण बनाया । यदि इसमें कहीं प्रमादवश भूल हुई हो, तो उसे प्रमादरहित पुराणन ठीक कर देवें । क्योंकि कहां तो प्रशस्तवंश हरिवंशरूपी पर्वत और कहां मेरी अतिशय. न्यूनशक्तिवाली बुद्धि ! . पुन्नाटगण चार संघों से किस संघके अन्तर्गत है, यहः हम निचयपूर्वक नहीं कह सकते हैं । परंतु हरिवंशपुराणकी प्रशस्तिका जो अंतिम श्लोक है, उससे तो ऐसा जान पड़ता है कि, पुन्नाट नामका कोई जुदा संघ ही है । वह श्लोक यह है:
व्युत्सृष्टापरसंघसन्ततिवृहत्पुन्नाटसंघान्वये प्राप्तः श्रीजिनसेनमुरिकविना लाभाय वोधे पुनः। दृष्टोऽयं हरिवंशपुण्यचरितः श्रीपार्वतः सर्वतो
व्याप्साशामुखमण्डलस्थिरतरः स्थयात्पृथिव्यां चिरम् ।। अर्थात् दूसरे संघोंकी सन्ततिको जिसने छोड़ दी है, ऐसे बड़े युन्नाट संघकी परिपाटीमें होनेवाले श्रीजिनसेनसूरि कविने सम्यग्ज्ञानके पानेके लिये जो यह हरिवंशका पुण्यचरित्ररूपी शोभामय पर्वत देखा है-रचा है, वह सब ओरसे आशाओंके (दिशाओंके वा इच्छाओंके ) मुखमंडलको व्याप्त करता हुआ पृथ्वीमें चिरकाल तक स्थिर रहे। . . . . .
. . इण्डियन ऐन्टिक्केरी ( १२११३-१६ ) में राष्ट्रकूटवंशीय महाराज प्रभूतवर्ष (द्वितीय) का जो दानपत्र प्रकाशित हुआ है