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(४०) केवल अपना पुन्नाटगण वतलाते हैं और दोनोंकी गुरुपरम्परा भी एक दूसरेसे बिलकुल नहीं मिलती है । देखिये, हरिवंशपुराणकी प्रशास्तिमें जिनसेनसूरि वर्द्धमानस्वामीसे लेकर जयसेनगुरु तककी गुरुपरम्परा लिखकर आगे कहते हैं:तदीय शिष्योऽमितसेनसद्गुरु पवित्रपुन्नाटगणाग्रणी गणी । जिनेन्द्रसच्छासनवत्सलात्मना तपोभृता वर्षशताधिजीविना ३१ सुशास्त्रदानेन वदान्यतामुना वदान्यमुख्येन भुवि प्रकाशिता। तदग्रजा धर्मसहोदर शमी समाधीर्द्धम इवात्तविग्रहः ॥ ३२ ॥ तपोमयाँ कीर्तिमशेषदिक्ष यः क्षिपन्वभौ कीर्तितकीर्तिषणः।। तदनशिष्येण शिवाग्रसौख्यभागरिष्टनमीश्वरभक्तिभाविना॥३३॥ स्वशक्तिभाजा जिनसेनसारिणा धियाल्पयोक्ता हरिवंशपद्धतिः। यदत्र किञ्चिद्रचितं प्रमादतःपरस्परव्याहृतिदोषदूषितम् ॥ ३४॥ तदप्रमदास्तु पुराणकोविदाःसृजन्तु जन्तुस्थितिशक्तिवेदिनः। प्रशस्तवंशो हरिवंशपर्वतःक मे मतिःक्वाल्पतराल्पशक्तिका॥३५॥
इन श्लोकोंका अभिप्राय यह है कि, उन जयसेन गुरुके शिष्य अमितसेन गुरु हुए, जो पवित्र पुन्नाटगणके मुख्य आचार्य थे, जिनकी सौ वर्षसे अधिक अवस्था हुई थी, और जिन्होंने असीम शास्त्रदान करके (विद्यापढाकर) संसारमें बड़ी भारी दानशूरता प्रगट की थी। उनके बड़े भाई और
१.इस लेखके प्रारंभमें (पृष्ठ में) नयंधरसे लेकर हरिवंशपुराणके कर्ता जिनसेन तककी गुरुपरम्परा लिखी जा चुकी है, वहां जयसेनस्वामीतककी गुरुनामावली देख लेना चाहिये । ये जयसेनस्वामी षट्खंडसूत्रोंके एक टीकाकार और सुप्रसिद्धा वैयाकरण थे । आदिपुराणकर्ताके दीक्षागुरु जयसेन इनसे भिन्न होंगे। . .