________________
(४५)
जयधवलाटीकाका शेषमाग भगवजिनसेनका बनाया हुआ है। इसके कई प्रमाण पहले दिये जा चुके हैं। उनके सिवाय प्राकृतशब्दानुशासनके कर्ता महाकवि त्रिविक्रमकी प्रशस्तिसे भी इस वातका पता लगता है, कि जिनसेनस्वामीने कोई प्राकृतका ग्रन्थ बनाया है और वह बहुत करके यही संस्कृतप्राकृतमिश्र वीरसेनीया टीकाका शेषभाग होगाः
श्रुतभर्तुरर्हनन्दित्रविद्यमुनेः पदाम्बुजभ्रमरः। श्रीवाणमुकुलकमलद्युमणेरादित्यशर्मणः पौत्रः॥ श्रीमल्लिनाथपुत्रो लक्ष्मीगर्भामृताम्बुधिसुधांशुः। सोमस्य वृत्तविद्याधाना भ्राता त्रिविक्रमासुकविः ।। श्रीवीरसेनजिनसेनाचार्यादिवचःपयोधितः कतिचित् । प्राकृतपदरत्नानि प्राकृतकृतिभूपणाय विचिनोति ।।
इसका भावार्थ यह है कि, अर्हनन्दि विद्यमुनिका शिप्य, आदित्यशर्माका पौत्र, मल्लिनाथका पुत्र, लक्ष्मीमाताके गर्भसमुद्रसे निकला हुआ चन्द्रमा और सोमका भाई त्रिविक्रम सुकवि वीरसेन जिनसेन आदि आचार्योंके वचनसमुद्रसे कुछ प्राकृतपदरूपी रत्न निकालकर अपनी प्राकृतरचनाकी शोभाके लिये संग्रह करता है। ___ इस तरह जिनसेनस्वामीके बनाये हुए वर्द्धमानपुराण, पार्श्वस्तुति, नयधवला टीका, आदिपुराण, और पार्श्वभ्युदयकाव्य इन पांच ग्रन्योंका निश्चित रूपसे पता लगता है। इनके सिवाय .. १. भगवजिनसेनका बनाया हुआ एक जिनसहस्रनामस्तोत्र भी है, परन्तु वह आदिपुराणके अन्तर्गत है, इसलिये जुदा नहीं गिनाया गया। .
-