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तच्छेषं चत्वारिंशतासहस्रैः समापितवान् । जयधवलैवं पष्ठिसहस्रग्रन्थोऽभवट्टीका || १८३ ॥ भावार्थ — गुरु महाराजकी आज्ञासे वीरसेनस्वामी चित्रकू छोड़कर माटग्राम में आये । वहां आनतेन्द्रके वनवाये हुए जिनमन्दिरमें बैठकर उन्होंने व्याख्याप्रज्ञप्ति ( वप्पदेवगुरुकृत) को प्राप्तकरके उसके जो पहले (कर्मप्राभृतके ) छह खंड हैं, उनमेंसे छठे खंडको संक्षेप किया और सबकी बन्धनादि अठारह अधिकारोंमें ( अध्यायोंमें) प्राकृतसंस्कृतभाषामिश्र धवला नामकी टीका ७२ हजार श्लोकोंमें रची। और फिर दूसरे कपायप्राभृतके पहले स्कन्धकी चारों विभक्तियोंपर जयधवला नामकी २० हजार श्लोक प्रमाण टीका लिख करके स्वर्गलोकको सिधारे । पीछे उनके शिष्य श्रीजयसेनगुरुने ४० हजार श्लोक और बनाकर जयधवलाटीकाको पूर्ण की । जयधवला - सब मिलाकर ६० हजार श्लोकोंम पूर्ण हुई ।
यहां जो शिष्यका नाम जयसेनगुरु लिखा है वह जैसा कि पहले कहा जा चुका है, छपानेवालोंके अथवा लेखक महाशयोंके दृष्टिदोषसे लिखा गया है । इसके लिये एक प्रमाण तो यह है कि, वीरसेनस्वामीके जयसेन नामके कोई शिष्य नहीं थे जिनसेन ही थे और दूसरे विबुध श्रीधरकृत गद्यश्रुतावतारमें जयसेनकेस्थानमें जिनसेन ही लिखा है । यथा:--
अत्रान्तरे एलाचार्यभट्टारकपार्श्वे सिद्धान्तद्वयं वीरसेननामा मुनिः पठित्वाऽपराण्यपि अष्टादशाधिकाराणि प्राप्य पञ्चखण्डे षट्खण्डं संकल्प्य संस्कृतप्राकृतभाषया सत्कर्मनामटीकां द्वास
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