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(३०) सुदी दशमीके पूर्वाह्नमें जब कि अष्टान्हिकाका महोत्सव था और पूजा हो रही थी, पूर्ण हुई, सो कल्पकालपर्यन्त इसका कभी क्षय नहीं होवे । अनुष्टुप् श्लोकोंकी गिनतीसे इस टीकाके कुल ६० हजार श्लोक हुए हैं। इसमें तीन स्कन्ध हैं, जिनके क्रमसे विभक्ति, संक्रमोदय, और उपयोग ये तीन नाम हैं। शकसंवत् ७९९ में कपायप्राभृतकी यह जयधवला टीका समाप्त हुई । गाथासूत्र, सूत्र, चूर्णिसूत्र, वार्तिक और वीरसेनीया टीका इस प्रकारसे इस पं. चांगी टीकाका क्रम है। जिसमें वीरभगवान्के कहे हुए अभिप्रायोंका संग्रह किया गया है, दूसरे आगमोंके विपय जिसमें विलोये गये हैं, श्रेष्ठ जिनसेन मुनीश्वरने जिसमें (अपने गुरुके ) उपदेश किये हुए अर्थोकी रचना की है, श्रीपाल नामके मुनिने जिसे सम्पादन की है, और सूत्रोंके अर्थका जिससे वोध होता है; ऐसी यह अतिशय पवित्र या प्रकाशमान जयधवला टीका जवतक संसारमें सूर्य चंद्र हैं, तब तक स्थिर रहे। __इसमें कहीं वीरसेनीया और कहीं जयधवला टीका लिखी देखकर पाठक चक्करमें न पड़ें । वास्तवमें कपायप्राभूतकी ( जिसे प्रायोदोषप्राभूत भी कहते हैं और जो ज्ञानप्रवादनाम पांचवें पूर्वके दशम वस्तुका तीसरा प्राभत है) जो वीरसेनस्वामी और जिनसेनस्वामीकृत ६० हजार श्लोक प्रमाण टीका है, उसका नाम तो वीरसेनीया है और इस वीरसेनीया टीकासहित जो कषायप्राभूतके. मूलसूत्र और चूर्णिसूत्र वार्तिक वगैरह अन्य आचार्योंकी टीकाएं हैं, उन सबके संग्रहको जयधवलाटीका कहते हैं । यह संग्रह श्रीपाल . नामके