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गुणभद्रस्वामी कबसे कब तक रहे, इसका निणय करनेमें और चड़ी कठिनता है। क्योंकि उन्होंने उत्तरपुराणके सिवाय अन्य किसी भी अन्यमें अपनी प्रशास्ति नहीं दी है। और न उस समयके किसी विद्वानका किया हुआ उल्लेख उनके विषयमें मिलता है। श्रीदेवसेनसूरिके बनाये हुए दर्शनसारके कुछ गाथा हम ऊपर दे चुके हैं, जिनमें यह कहा गया है कि, जिनसेनस्वामीके शिष्य गुण भद्रस्वामी थे। उन्होंने विनयसनमुनिके शरीरान्त होनेपर सिद्धान्तोंका उपदेश किया और पीछे वे भी स्वर्गलोकको सिधारे । फिर विनयसेनका शिष्य कुमारसेन था, सो उसने संन्यासभ्रष्ट होकर काष्ठासंघ चलाया। इससे यह अभिप्राय निकलता है कि, विनयसेन और गुणभद्रस्वामीकी मृत्युके पश्चात् कुमारसेन सन्यासभ्रष्ट दुआ है, और फिर उसने काठासंघ चलाया है। काष्ठासंघ कत्र चला है, इसके लिये दर्शनासारकी उक्त गाथाओंके आगे ही कहा है:
सत्तसये तेवण्णे विक्रमरायस्स मरणपत्तस्स। . नंदियडे वरगामे कटोसंघो मुणेयवो ॥ ३९ ॥ . नदियडे वरगामे कुमारसेणो य सत्यविण्णाणी।
कहो दसणभट्टो जादो सल्लेहणाकाले ॥४०॥ अर्थात् विक्रमराजा (शालिवाहन ) की मृत्युके ७५३ वर्ष पीछे नन्दीतट ग्राममें काष्ठासंघ उत्पन्न हुआ। उक्त ग्राममें शास्त्रोंका ज्ञाता कुमारसेन सल्लेखनाके समय दर्शनसे भ्रष्ट हो गया।
१. यह निश्चय हो चुका है कि, शकसंववके चलानेवाले शालिवाहनका नाम विक्रम था । जैनग्रन्थोंमें जहां विक्रमाव्द. लिखा रहता है, वहां बहुत करके शकसंवतके ही अभिप्रायसे लिखा रहता है.। .. . . .