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यहांपर एक बात यह विचारणीय है कि वीरसेनस्वामीके पीछे जिनसेन और जिनसेनके पीछे गुणभद्रस्वामीने ही आचार्यपदको सुशोभित किया था, या अन्य किसीने देवसेनसरिने अपने दर्शनसारग्रन्थों काष्ठासंघकी उत्पत्तिमें लिखा है कि:
'सिरिवीरसेणसीसो जिणसेणो सयलसत्यविण्णाणी । सिरिपउमणंदि पच्छा चउसंघसमुद्धरणधीरो ॥ ३१ ॥ तस्य य सिस्सो गुणवं गुणभद्दो दिव्बणाणपरिषण्णो। पक्खोवासमंडिय महातबो भावलिंगो य ॥ ३२ ॥ तेण पुणोवि य मिच्चं णेऊण मुणिस्स विणयसेणस्स । सिद्धंतं घोसित्ता सयं गयं सग्गलोयस्स ॥ ३३॥
अर्थात्-श्रीवीरसेनाचार्यके शिष्य जिनसेन जो कि संपूर्ण शाम्नांके ज्ञाता थे, श्रीपद्मनन्दिके पश्चात् चारों संबके स्वामी (आचार्य) हुए। फिर उनके शिष्य गुणवान् गुणभद्र हुए जो कि दिव्यज्ञानसे परिपूर्ण, एक एक पक्षका (१५ दिनका) उपवास करनेवाले, बड़े मारी तपस्वी, और सच्चा मुनिलिंग धारण करनेवाले थे। उन्होंने श्रीविन
१. संस्कृतछायाश्रीवीरसेनशिप्यो जिनसेनः सकलशास्त्रविज्ञानी। श्रीपद्मनन्दिपश्चात् चतुःसंघसमुदरणधीरः॥३१॥ तस्य च शिप्यो गुणवान गुणभद्रो दिव्यज्ञानपरिपूर्णः । पक्षोपवासमण्डितः महातपः भावलिगच ॥ ३२॥ तेन पुनोपि च मृत्यु नीत्वा मुनेः विनयसेनस्य । सिद्धान्तं घोसित्वा स्वयं गतं स्वर्गलोकस्य ॥ ३३ ॥