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(२४) तद्वत्सन्ति वुधा न सन्ति कवयो वादीश्वराः वाग्मिनो नानाशास्त्र विचारचातुरधियाः काले कलौ मद्विधाः । राजन् सर्वारिदर्पप्रविदलनपटुस्त्वं यथाऽत्र प्रसिद्धस्तद्वत् ख्यातोऽहमस्यांभुवि निखिलमदोत्पाटने पण्डितानाम्। नोचेदेपोऽहमेत तव सदसि सदा सन्ति सन्तो महन्तो वक्तुं यस्यास्ति शक्तिःस वदतु विदिताशेषशास्त्रो यदि स्यात् ।
इन दोनों श्लोकोंका भावार्थ यह है कि हे साहसतुंग, जिस तरह इस जगतमें सफेद छत्रके धारी अनेक राजा हैं, परन्तु तेरे समान रणविजयी दानशूर राजा बहुत दुर्लभ हैं, उसी तरहसे पंडित बहुत हैं, परन्तु मेरे समान कवि वाग्मि और अनेक शास्त्रोंके विचारमें चतुर विद्वान् इस कलिकालमें और दूसरा नहीं है । और जिस तरहसे तू सारे शत्रुओंका मान मर्दन करनेमें प्रसिद्ध है, उसी प्रकारसे पंडितोंका सारा घमंड चकचूर करनेके लिये पृथ्वीमें मैं प्रसिद्ध हूं। यदि ऐसा नहीं है, तो मैं खड़ा हूं, तेरी सभा सदा ही बहुत बड़े २ विद्वान् रहते हैं, उनमेंसे किसीकी वोलनेकी शक्ति हो, तो वह वोले ! .
अकलंकदेवके शिष्य प्रभाचन्द्र और विद्यानन्दि जिनसेनाचार्यके समकालीन थे । आश्चर्य नहीं कि, ये भी मान्यखेटमें ही हुए हों । प्रोफेसर के. वी: पाठकने २५ जून सन् १८९२ ई० को 'रायल एशियाटिक सुसाइटीकी बम्बईकी शाखा के समक्ष भर्तृहरि और कुमारिलभट्टके विषयमें एक निवन्ध पढ़ा था। उसमें लिखा है कि, अकलंकदेव राष्ट्रकूटवंशके शुभतुंग राजाके समकालीन थे जो कि आठवीं