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(१४). जानेसे जिसकी प्रतिभा तथा वुद्धि प्रकाशित हो रही है, विद्याओं
और उपविद्याओंके जो पार पहुंच गया है, सारे नय और प्रमाणोंके (न्यायशास्त्र के) जाननेमें जो चतुर है और इस प्रकारके जो अगणित गुणोंसे भूपित है। ___ इससे दो बातें मालूम होती हैं, एक तो यह कि, दशरथगुरु जिनसेन स्वामीके सतीर्थ थे और दूसरे यह कि गुणभद्रस्वामीके भी वे गुरु थे । वहुत करके गुणभद्रस्वामीके विद्यागुरु दशरथगुरु होंगे
और दीक्षागुरु जिनसेनस्वामी होंगे। ___ इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतारमें जो कि कोल्हापुरमें छपा है, लिखा
विंशति सहस्रसद्ग्रन्थरचनया संयुतां विरच्य दिवम् । यातस्ततः पुनस्तच्छिष्यो जयसेनगुरुनामा ॥ १८२ ।।
तच्छेषं चत्वारिंशता सहस्रः समापितवान् । इत्यादि। - अर्थात् वीरसेनस्वामी जयधवला टीकाके २० हजार श्लोक बनाकर स्वर्गलोकको सिधारे, तव उनके शिष्य जयसेनगुरुने उसका शेष भाग ४० हजार श्लोकोंमें बनाकर पूर्ण किया। इससे मालूम होता है कि वीरसेनस्वामीके एक जयसेन नामके भी शिष्य थे । परन्तु यथार्थमें यह एक भ्रम है । लेखकके प्रमादसे मूल पुस्तकमें या छपाते समय संशोधकके दृष्टिदोषसें 'जिनसेनगुरु' की जगह 'जयसेनगुरु' लिख अथवा छप गया है। क्योंकि जैसा कि हम आगे लिखेंगे, जयधवला
टीकाका शेषभाग जिनसेनस्वामीका ही बनाया हुआ है। अतएव वीर- : - सैनस्वामीके जयसेन नामके शिष्य नहीं थे । हां जिनसेनस्वामीके