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यस्य वाचां प्रसादेन ह्यमेयं भुवनत्रयम् । आसीदष्टाङ्गनैमित्तज्ञानरूपं विदां वरम् ॥ तच्छिष्यप्रवरो जातो जिनसेनमुनीश्वरः । यद्वाङ्मयं पुरोरासीत्पुराणं प्रथमं भुवि ॥ तदीय प्रियत्रिष्योभूद्गुणभद्रमुनीश्वरः । शलाका पुरुषा यस्य सूक्तिभिर्भूषिताः सदा || गुणभद्रगुरोस्तस्य महात्म्यं केन वर्ण्यते । यस्य वाक्सुधया भूमावभिषिक्ता मुनीश्वराः ||
श्रीजिनसेनाचार्यने अपने हरिवंशपुराणके अन्तमें महावीर भगवानसे लेकर अपने समय तकके आचार्योंके नाम दिये हैं । परन्तु उनमें समन्तभद्र, शिवायन, शिवकोटि, वीरसेन आदि किसीका भी नाम नहीं है। इससे मालूम होता है कि, उक्त परम्परा केवल एक पुन्नाटगणकी है, जो कि सेनसंघकी एक शाखा है । महापुराणके कर्त्ता जिनसेन इस पुन्नाटगणमें नहीं, किसी दूसरे ही गणमें हुए हैं, इसलिये उनकी गुरुपरम्परा पुन्नाटगणसे नहीं मिलती है । वीरसेन जिनसेन और गुणभद्र के किसी भी ग्रन्थसे इस वातका पता नहीं लगता है कि, उनका गण तथा गच्छ कौनसा था। उन्होंने जहां २ अपना उल्लेख किया है, वहां केवल सेनसंघका उल्लेख किया है । गण और गच्छका नाम भी नहीं लिया है । यथाः --
श्रीमूलसंघवाराशौ मणीनामिव सार्चिषाम् । महापुरुषरत्नानां स्थानं सेनान्वयोऽजनि ।