Book Title: Uttaradhyayan Ek Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Tulsi Acharya, Nathmalmuni
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
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________________ खण्ड : 1, प्रकरण : 1 २-श्रमण-संस्कृति का प्राग्-ऐतिहासिक अस्तित्व 17 इसमें 'अर्हन्' और 'दया' दोनों जैनों के प्यारे शब्द हैं। मेरी तो मान्यता है कि जितना हिन्दू-धर्म प्राचीन है, शायद उतना ही जैन-धर्म भी प्राचीन है।" अर्हन् शब्द का प्रयोग वैदिक विद्वान् भी श्रमणों के लिए करते रहे हैं। हनुमन्नाटक में लिखा है ___"अर्हन्नित्यथ जैनशासनरताः।" ऋग्वेद के अर्हन् शब्द से यह प्रमाणित होता है कि श्रमण-संस्कृति ऋग्वैदिक-काल से पूर्ववर्ती है। __श्री जयचन्द्र विद्यालंकार ने व्रात्यों को अर्हतों का अनुयायो माना है- "वैदिक से भिन्न मार्ग बुद्ध और महावीर से पहले भी भारतवर्ष में थे। अर्हत् लोग बुद्ध से पहले भी थे और अनेक चैत्य भी बुद्ध से पहले थे। उन अर्हतों और चैत्यों के अनुयायी 'व्रात्य' कहलाते थे, जिनका उल्लेख अथर्ववेद में भी है।"२ असुर और अर्हत ___वैदिक-आर्यों के आगमन से पूर्व भारतवर्ष में दो प्रकार की जातियाँ थीं-सभ्य और असभ्य / सभ्य जाति के लोग गाँवों और नगरों में रहते थे और असभ्य जाति के लोग जंगलों में। असुर, नाग, द्रविड़-ये सभ्य जातियाँ थीं। दास-जाति असभ्य थी। असुरों की सभ्यता और संस्कृति बहुत उन्नत थी। उनके पराक्रम से वैदिक-आर्यों को प्रारम्भ में बहुत क्षति उठानी पड़ी। . . असुर लोग आईत्-धर्म के उपासक थे। बहुत आश्चर्य की बात है कि जैन-साहित्य में इसकी स्पष्ट चर्चा नहीं मिलती, किन्तु पुराण और महाभारत में इस प्राचीन परम्परा के उल्लेख सुरक्षित हैं। . . विष्णुपुराण,3 पद्मपुराण,४ मत्स्यपुराण" और देवीभागवत में असुरों को आईत् या जैन-धर्म का अनुयायी बनाने का उल्लेख है। १-हरिजन सेवक, 30 मई 1948 / २-भारतीय इतिहास की रूपरेखा, प्रथम जिल्द, पृ० 402 / ३-विष्णुपुराण, 3 // 17 // 18 : ४-पद्मपुराण, सृष्टि खण्ड, अध्याय 13, श्लोक 170-413 / ५-मत्स्यपुराण, 24 / 43-49 / ६-देवीभागवत, 4 / 13 / 54-57 /