Book Title: Tirthankar Charitra Part 3
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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गजराज के पीछे
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दिन व्यतीत किये । तीसरे दिन उसे एक वनवासी तपस्वी दिखाई दिया। तपस्वी उसे अपने आश्रम में ले गया। आश्रम में वृद्ध कुलपति को देख कर कुमार ने नमस्कार किया। कुलपति ने उनका परिचय पूछा । ब्रह्मदत्त की आकृति उसे प्रिय लग रही थी । ब्रह्मदत्त के मन में कुलपति के प्रति भक्ति और विश्वास उत्पन्न हआ। उसने वास्तविक परिचय
और विपत्ति का वर्णन किया । ब्रह्मदत्त का परिचय पा कर कुलपति प्रसन्न हुआ और हर्षावेगपूर्वक बोला;---
"वत्स ! मैं तो तुम्हारा पितृव्य (काका) हूँ। अब-तुम अपने को यहाँ अपने ही घर में समझो और सुखपूर्वक रही।"
गजराज के पीछे
ब्रह्मदत्त तपस्वियों के आश्रम में रह कर शास्त्र एवं शस्त्र-विद्या का अभ्यास करने लगा। इस प्रकार वहां वर्षाकाल व्यतीत किया । शरद-ऋतु में तापस लोग, फल और जड़ी-बूंटी के लिये आश्रम से दूर वन में जाने लगे । ब्रह्मदत्त भी उनके साथ जाने लगा। कुलपति ने उसे रोका, परन्तु वह लम्बे काल तक एक ही स्थान पर रहने से ऊब गया था। इससे कुलपति के निषेध की अवगणना कर के वह अन्य तापसों के साथ चला गया। आगे चलते हुए उसे हाथी के लींडे, मूत्र और पदचिन्ह दिखाई दिये । कुमार यह देख कर उस हाथी को प्राप्त करने के लिए, पद-चिन्हों के सहारे जाने लगा। साथ वाले तापसों ने उसे रोकना चाहा, परन्तु वह नहीं माना और चलता बना । लगभग पांच योजन जाने के बाद उसे पर्वत के समान ऊँचा और मदोन्मत गजराज दिखाई दिया। कुमार ने उसे ललकारां गजराज क्रोधान्ध बन कर कुमार पर झपटा । कुमार सावधान हो गया। उसने अपना उत्तरीय वस्त्र उतार कर आकाश में उछाला । ज्योंहि वस्त्र हाथी के सामने आ कर गिरा त्योंहि वह उस वस्त्र पर ही अपने दंतशूल से प्रहार करने लगा । वस्त्र की धज्जियाँ उड़ने के बाद ब्रह्मदत्त ने उसे पुन: ललकारा । क्रोधान्धं गजराज ने सूंड उठा कर कुमार पर हमला कर दिया । कुमार हाथी को थका कर वश में करने की कला जानता था। हाथी की मार से बचने के लिये कुमार चपलतापूर्वक इधर-उधर खिसकता और विविध प्रकार की चालबाजियों से अपने को बचाते हुए हाथी को थका कर परिश्रांत करने लगा। कभी कुमार भुलावा दे कर उसकी पूंछ पकड़ कर उस पर चढ़ बैठता, तो कभी सूंड पर
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