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धनपाल का जीवन, समय तथा रचनायें
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अनुसरण न करने वाले की क्या गति होती है इसके लिए कवि कहता है"तुम्हारे सिद्धान्तरूपी सरोवर से भ्रष्ट, स्थान-स्थान से कर्मबन्धनों में बंधा हुआ जीव, विभिन्न वृक्षों की आलवालों से बंधे सारणि के जल के समान भ्रमित होता है ।"1
जिस प्रकार कूपारघट्ट के घड़े जल से भरे होने पर ऊपर की ओर तथा जल छोड़ने पर नीचे की ओर जाते हैं, उसी प्रकार तुम्हारे प्रवचन ग्रहण करने पर जीव ऊर्ध्वमुख होते हैं तथा विमुख होने पर नीचे की ओर जाते हैं । ऋषभपंचाशिका पर देवचन्द्र के शिष्य प्रभानन्द ने ललितोक्ति नामक वृत्ति, हेमचन्द्रगणि ने विवरण, धर्मशेखर ने संस्कृत-प्राकृत अवचूरि, नेमिचन्द्रगणि, चिरन्तनमुनि तथा पूर्वमुनि ने अवचूरित्रय रची हैं ।
हेमचन्द्र के समय (1088-1172) तक ऋषभपंचाशिका अत्यन्त लोकप्रिय हो गई थी। इसका प्रमाण जिनमंडनगणिकृत कुमारपालप्रबन्ध में मिलता है :
"अथ प्रदक्षिणावसरे सरसापूर्वस्तुति करणार्थमभ्यथिताः श्रीहेमसूरयः सकलजनप्रसितां 'जय जंतुकप्प' इति धनपालपंचाशिका पेठः । राजादयः प्राहुः-- भगवन् । भवन्तः कलिकालसर्वज्ञाः परकृतस्तुति कथं कथयन्ति ? गुरुमि रचेराजन् ! श्रीकुमारदेव ! एवंविधसद्भूत भक्तिगर्मा स्तुतिरस्मामिः कर्तुन शक्यते ।"
हेमचन्द्रसूरि सदृश प्रसिद्ध कवि तथा विद्वान् भी धनपाल रचित ऋषभपंचाशिका का ही पाठ करते थे। आज भी जैन धार्मिक जगत में ऋषभपंचाशिका का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। जैन साधु इसका नियमित रूप से भक्तिपूर्वक पाठ करते हैं।
1. तुम समयसरन्भट्टा, भमंति सयलासु रुक्खजाईसु । सारणिजलं व जीवा, ठाणट्ठाणेसु बझंता ।।
-ऋषभपंचाशिका, गाथा 29 सलिलम्ब पवयणे तुह, गहिए उडं अहो विमुक्कम्मि । वच्चंति नाह ! कूवयथ रहट्टघडिसंनिहा जीवा ॥
-वही, गाथा 30 3. कापड़िया, हीरालाल रसिकदास : ऋषभपंचाशिका अने वीरस्तुति रूप
कृतिक्लाप, सूरत, 1933 4. जिनमण्डनगणि-कुमारपाल प्रबन्ध, आत्मानन्द ग्रंथमाला 34, भावनगर,
पृ. 101, वि. सं. 1971