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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
घी के लिए आज्य तथा सर्पि शब्द प्रयुक्त हुए हैं ।
(4) तक्र-11' छाछ (5) नवनीत 117, हैयंगवीन 117, मक्खन (6) तैल-131 (7) इक्षुरस 305 (8) माक्षिक 305-मधु शहद (9) पुण्डे क्षुरस 40 (10) नालिकेरीफलरस 260
(11) कापिशायन-18 कपिशा अर्थात गान्धार देश में उत्पन्न होने वाले अंगूरों से तैयार किये गये मद्य को कहते थे । शाक
(1) अपुष, 120, 305 खीरा को वपुष कहा जाता था। इसकी बेल लगती थी।
(2) कर्कारू 120, कूष्माण्ड 305-कोहड़ा को कर्कारू तथा कूष्माण्ड कहते थे। यह भी वल्लीफल था।
(3) कारवेल्लक-120 करेला, इसकी भी बेल लगती है। (4) तुण्डीरक-305 । (5) वार्ताक-(बैंगन) 305 ।
वनस्पति-वर्ग के अन्तर्गत अन्य फलों, ओषधियों आदि के नाम बताये जा चुके हैं।
इस अध्याय में हमने देखा कि तिलकमंजरी कालीन समाज सांस्कृतिक दृष्टिकोण से कितना समृद्ध तथा सम्पन्न था। साहित्य तथा कला का साम्राज था। क्या साधारण प्रजा व क्या सम्भ्रान्त वर्ग, सभी उच्च कोटि के साहित्य व कला में रुचि रखते थे व उनसे अपना मनोविनोद करते थे। उत्तम वस्त्रों का प्रचलन था, जिससे ज्ञात होता है कि वस्त्रोद्योग उस समय कितना विकसित था। वस्त्रों के अतिरिक्त विभिन्न प्रकार के आभूषणों केश विन्यासों तथा प्रसाधनों से विभिन्न प्रकार से शरीर की सजावट की जाती थी, जो तत्कालीन सांस्कृतिक परिष्कृत रुचि की परिचायक है। अतः तिलकमंजरी तत्कालीन राजाओं के वैभव मनोविनोद, विभिन्न वस्त्रों तथा आभूषणों व अन्य प्रसाधनों से सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक उपादानों के दृष्टिकोण से एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है।