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तिलकमंजरी, एक सांस्कृतिक अध्ययन
चम्पू भी कथावस्तु के रसास्वादन में बाधक होता है ।1 अतः बीच-बीच में पद्यों से उपस्कृत गद्य जहां काव्य के रसास्वाद को द्विगुणित कर देता है, वहीं पद्यों की भरमार उसमें बाधक बन जाती है। धनपाल ने तिलकमंजरी के प्रारम्भ में गद्य का जो यह आदर्श उपस्थित किया है, अपने काव्य में उन्होंने उसका आद्योपान्त निर्वाह किया है । अत: उनकी भाषा अत्यन्त प्रवाहमयी, प्रांजल, ओजस्वी तथा प्रभावोत्पादक बन गयी है।
यद्यपि कवि किसी एक ही वर्णन-शैली का क्रीतदास नहीं होता, वर्ण्यविषय तथा प्रसंग के अनुसार वह अपनी शैली को परिवर्तित करता है, किन्तु प्रमुखतया प्रत्येक कवि की वर्णन करने की अपनी एक शैली स्वतः ही बन जाती है। वृत्ति, रीति, मार्ग, संघटना तथा शैली शब्द समानार्थक हैं। एक ही पदार्थ को भिन्न-भिन्न आचार्यों ने भिन्न-भिन्न नामों से व्यवहृत किया है । उद्भट ने जिसे वृत्ति कहा है, वामन ने उसे ही रीति कहा है, कुन्तक तथा दण्डी ने मार्ग एवं आनन्दवर्धन ने संघटना कहा है। उद्भट ने अपने काव्यालंकारसारसंग्रह में तीन प्रकार की वृत्तियां कही हैं, उपनागरिका, पुरुषा तथा कोमला । वामन ने इन्हीं तीनों रीतियों को वैदर्भी, गौडी तथा पांचाली नाम से अभिहित किया है।
धनपाल की प्रतिपाद्य शैली वैदर्भी है । वामन के अनुसार वैदर्भी रीति तो समस्त गुणों से युक्त होती है, परन्तु गौडीया रीति में केवल औज और कान्ति ये दो ही गुण होते हैं और पांचाली में केवल माधुर्य तथा सौकुमार्य ये दो ही गुण रहते हैं । वामन के अनुसार ओज प्रसादादि समस्त गुणों से युक्त और दोष की मात्रा से रहित वीणा के शब्द के समान मनोहारिणी वैदर्भी रीति होती है । मम्मट ने माधुर्यव्यंजक वर्णों से युक्त वृत्ति को उपनागरिका कहा है । विश्वनाथ
1. अश्रान्तगद्यसन्ताना श्रोतृणां निविदे कथा।
जहाति पद्यप्रचूरा चम्पूरपि कथारसम् ॥ -तिलकमंजरी, पद्य 17 2. साधा वैदर्भी गौडीया पांचालि चेति
-वामन, काव्यालंकारसूत्र. 1, 2,9 3. समग्रगुणा वैदर्भी
ओजः प्रसादप्रमुखर्गणरूपेता वैदर्भी नाम रीतिः अस्पृष्टा दोषमात्रामिः समग्रगुणगुम्फिता। विपंचीस्वरसौभाग्या वैदर्भी रीतिरिष्यते ।।
-वामन काव्यालंकारसूत्र, 1, 2, 11 4. माधुर्यव्यंजकर्वणैरूंपनागरिकोच्यते । -मम्मट, काव्यप्रकाश, 9, 107