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तिलकमंजरी का साहित्यक अध्ययन
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सुन्दरी का नाभिदेश प्रकाशित हो रहा था । एक सन्दर्भ में नेत्र वस्त्र की विस्तारिका का उल्लेख है। तिलकमंजरी के टीकाकार विजयलावण्यसूरि ने 'नेत्र' का सही अर्थ न जानते हुए उसकी भ्रमित व्याख्या की है। नेत्रगण्डोपधान का अर्थ'नेत्रगण्डस्थलयोः उपघाने स्थापनाऽधारी यस्मिंस्तादृशम् किया है, जो सर्वथा अनुचित है। इसी प्रकार 'नेत्रफ्टवितान' में नेत्रपट शब्द में नेत्र वस्त्र का स्पष्ट उल्लेख होते हुए भी टीकाकार ने तारनेत्र:-'तारंविशालम् नेत्राकृतिर्यस्मिस्तादृशः पटवितान वस्त्ररूप उल्लोचो' यह असंगत अर्थ दिया है। नेत्र पतका के लिए टीकाकार ने 'नेत्रपताकानां नेत्रकारविशिष्टवस्त्रनिर्मित-ध्वजानाम् पटवस्त्रः पल्लविताः' इस प्रकार अर्थ किया है । इससे ज्ञात होता है कि टीकाकार को नेत्र वस्त्र के विषय में कोई ज्ञान नहीं था तथा उसने उसके स्वबुद्धिकल्पित भिन्न-भिन्न अर्थ कर दिये। इसी प्रकार नेत्रकूर्पासक में टीकाकार ने नेत्र तथा कूसिक दोनों का ही गलत अर्थ किया है ।--'घृतनेत्रकूसिकेन गृहीतनेत्रावरणेन' ।
संस्कृत साहित्य में नेत्र वस्त्र का उल्लेख अत्यन्त प्राचीन है। कालिदास ने सर्वप्रथम नेत्र शब्द का उल्लेख रेशमी वस्त्र के रूप में किया है। बाण के अनुसार नेत्र श्वेत रंग का वस्त्र था। किन्तु धनपाल के उल्लेखों से ज्ञात होता है कि नेत्र कई रंगों का होता था। बाण ने छापेदार नेत्र वस्त्रों का उल्लेख भी किया है । इसकी बुनावट में फूल पत्ती का काम बना रहता था। डॉ. मोतीचन्द्र के अनुसार नेत्र बंगाल में बनने वाला एक मजबूत रेशमी कपड़ा था, जो 14 वीं सदी तक बनता रहा । इसकी पाचूडी पहनी और बिछायी जाती थी। उद्योतनसूरि (779) के उल्लेख से ज्ञात होता है कि नेत्र चीन देश से भारत में आता था ।10 वर्णरत्नाकर में चौदह प्रकार के नेत्र वस्त्रों का उल्लेख है।
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1. वही, पृ० 279 2. तिलकमंजरी, विजयलावण्यसूरि कृत पराग टीका, भाग 2, पृ. 171 3. वही, पृ० 174 4. तिलकमंजरी, पराग टीका, भाग 2, पृ० 200 5. वही, भाग 3, पृ. 5 6. नेत्रोंक्रमेणोपरूरोध सूर्यम्
--कालिदास, रघुवंशम् 7/39 7. धोतधवलनेनिर्मितेन निर्मोकलघुतरेण कंचुकेन, बाणभट्ट, हर्षचरित, पृ० 31 8. अग्रवाल वासुदेवशरण, हर्षचरित : एक सांस्कृतिक अध्ययन, पृ० 79. 9. मोतीचन्द्र, प्राचीन भारतीय वेशभूषा, पृ. 157 10. उद्योतनसूरि कुवलयमाला, पृ. 66