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तिलकमंजरी का साहित्यक अध्ययन
पहले निन्दा पर बाद में स्तुति में पर्यवसित होने वाला एक उदाहरण कांची नगरी के वर्णन में मिलता है— गुणों के समूह में उस (नगरी) में केवल एक ही दोष था कि विलासिनीयों के वासभवनों की दन्तवलमियों में निरन्तर जलने वाले कालागरू के धुएं से नवीन चित्रों युक्त भित्तियां मैली हो जाती थी । 1 यहां निन्दा के व्याज से कांची की प्रशंसा की गई हैं, अतः व्याजस्तुति अलंकार हैं । परिसंख्या
परिसंख्या अलंकार धनपाल को सर्वाधिक प्रिय है । सम्पूर्ण तिलकमंजरी में विभिन्न स्थलों पर इसका सुन्दर प्रयोग हुआ है ! धनपाल को इसके प्रयोग में विशेष निपुणता प्राप्त है । कुछ स्थल उदाहृत किये जायेंगे । कोई पूछी गई अथवा बिना पूछी गई बात जब उसी प्रकार की अन्य वस्तु के निषेध में पर्यवसित होती है, तो परिसंख्या अलंकार कहलाती है । 2 यह निषेध शब्दतः अर्थात् वाध्य भी हो सकता है अथवा व्यंग्य रूप भी हो सकता है । इस प्रकार परिसंख्या के चार प्रकार हो जाते हैं - (1) प्रश्नपूर्वक प्रतीयमानव्यवच्छेद्य ( 2 ) प्रश्नपूर्वक वाच्यव्यवच्छेद्य (3) अप्रश्नपूर्वक प्रतीयमानव्यवच्छेद्य तथा (4) अप्रश्नपूर्वक वाच्यव्यवच्छेद्य । धनपाल ने प्रश्नपूर्वक परिसंख्या का प्रयोग नहीं किया है, अत: पहले दो प्रकार के उदाहरण तिलकमंजरी में नहीं मिलते । अन्तिम दोनों को को उदाहृत किया जाता है ।
(1) अप्रश्नपूर्वक वाच्यव्यवच्छेद्य - कांची नगरी के वर्णन में कहा गया है कि जहाँ मुग्धता रूप में पायी जाती थी सुरत में नहीं, हल्दी का रंग देह में लगाया जाता, स्नेह में नहीं, गुरुजनों के नामोच्चार में बहुवचन का प्रयोग होता था, न कि दूसरों के कार्य को करने में बहुत तरह की बातें की जातीं, रति में विलासचेष्टाएँ होती थीं न कि चित्त में भ्रान्ति होती ।
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संस्करण,
भाग 3,
यस्य गुणौघजुषि दूषणमेकमेव, यद् वासदन्तवल भीषुविलासिनीनाम् । उद्यन्नजस्रमसिता गुरूदाहजन्मा, घूमः करोति मलिनानवचित्रमित्तीः ॥ - तिलकमंजरी, विजयलावण्यसूरीश्वरज्ञानमन्दिर, पृ. 174 (काव्यमाला संस्करण में यह पद्य उपलब्ध नहीं हैं । ) किंचित्पृष्टमपृष्टं वा कथितं यत्प्रकल्पते । तादृगन्यव्यपोहाय परिसंख्या तु सा स्मृता ॥
-मम्मट, काव्यप्रकाश, 10 / 184 यत्र मुग्धता रूपेषु न सुरतेषु, हरिद्वारागो देहेषु न स्नेहेषु, बहुवचनप्रयोगः पूज्यनामसु न परप्रयोजनांगीकरणेषु, विभ्रमो रतेषु न चित्तषु ।
- तिलकमंजरी, पृ. 260