________________
रसाभिव्यक्ति
143
इस प्रकार हम देखते हैं कि तिलकमंजरी में सभी नौ रसों की सम्यक अभिव्यक्ति हुयी है । प्रधान रस शृंगार है, जिसके दोनों भेदों की सुन्दर अभिव्यंजना कर उसे चरम परिपाक तक विकसित किया गया है। वीर, वीभत्स तथा अमृतादि अन्य रस अंगरूप से वर्णित करके प्रमुख रस के परिपोषण तथा कथा के विकास में सहायक हैं ।
प्रस्तुत अध्याय में तिलकमंजरी का साहित्यिक विश्लेषण प्रस्तुत किया गया जिसके प्रमुख प्रतिमान थे, तिलकमंजरी : एक कथा, धनपाल की भाषाशैली, अलंकार-योजना तथा रसाभिव्यक्ति । गद्य-काव्य की दो विधायें काव्यशास्त्रियों द्वारा निर्धारित की गयी है -- कथा तथा आख्यायिका। तिलकमंजरी ग्रन्थ गद्य-काव्य की कथा-विधा के अन्तर्गत आता है। यह काव्य संस्कृत साहित्य के एक प्रमुख अंग गद्य-काव्य के अल्पशेष दुर्लभ ग्रन्थों के अन्तर्गत होने से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । धनगल ने अति प्रांजल. ओजस्वी, भावपूर्ण भाषा में इस ग्रन्थ की रचना की है तथा छोटे-छोटे समासों युक्त ललित वैदर्भी रीति का प्रयोग किया है । सुन्दर प्रसंगानुकूल अलंकार-योजना से काव्यकलेवर सजाया-संवारा गया है । राजकुमार हरिवाहन तथा विद्याधर कुमारी तिलकमंजरी की यह प्रेम-कथा शृंगार-रस से सिंचित होते हुए भी अन्य सभी आठों रसों से भी अभिसिक्त है। अपनी इन्हीं विशेषताओं से तिलकमंजरी ने कथा-साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान बना लिया है तथा वासवदत्ता, कादम्बरी, की पंक्ति में तृतीय स्थान पर विराजमान हो गयी है।