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तिलकमंजरी का सांस्कृतिक अध्ययन
147 डा० हजारीप्रसाद ने साहित्यक मनोविनोदों में प्रतिमाला, दुर्वाचक, मानसीकता तथा अक्षरमुष्टि का उल्लेख किया है ।1।
(1) प्रतिमाला या अन्त्याक्षरी में एक आदमी एक श्लोक पढ़ता था और उसका प्रतिपक्षी पंडित श्लोक के अंतिम अक्षर से शुरु करके दूसरा श्लोक पढ़ता।
(2) दुर्वाचक योग के लिए ऐसे कठोर उच्चारण वाले शब्दों का श्लोक सामने रखा जाता था कि जिसे पढ़ सकना कठिन होता था ।
(3) मानसी कला में कमल के या अन्य वृक्ष के पुष्प अक्षरों की जगह पर रख दिये जाते थे और उसे पढ़ना पड़ता था।
___(4) अक्षरमुष्टि दो प्रकार की होती थी सामासा तथा निरामासा । सामासा संक्षिप्त करके बोलने की कला है तथा निरामासा गुप्त भाव से वार्तालाप करने की कला है।
कलात्मक सनोरंजन संगीत, चित्रकला, नृत्य, तथा नाटक, पत्रच्छेद, पुस्तकर्मादि प्रमुख कलाएं थीं। साहित्य के पश्चात राजकीय मनोरंजन का प्रमुख साधन थीं। सम्भ्रान्त जनों के लिए इन कलाओं में दक्षता प्राप्त करना अनिवार्य था। राजकुमार हरिवाहन को समस्त चौसठ कलाओं में प्रवीण कहा गया है। तिलकमंजरी को समस्त विद्याधरों में कला में लब्धपताका कहा गया है । न केवल राजकीय व्यक्ति अपितु साधारण नागरिक भी इनमें पूर्ण निष्णात होते थे । गीत, वाद्य तथा नृत्य प्रत्येक राजकुमारी की शिक्षा के आवश्यक अंग थे । मलयसुन्दरी ने राजकोचित विद्या ग्रहण कर नाट्यशास्त्र तथा गीतवाद्यादि कलाओं में प्रवीणता प्राप्त की थी। तिलकमंजरी ने चित्रकला, वीणादि वाद्यों का वादन, लास्य तथा ताण्डवनृत्य, संगीत, पुस्तककर्म तथा विभिन्न प्रकार की पत्रच्छेद रचनादि विदग्धजन विनोद योग्य विभिन्न कलाओं में निपुणता प्राप्त की थी। अतः मलयसुन्दरी हरिवाहन को तिलकमंजरी के साथ इन विषयों पर
1. द्विवेदी, हजारीप्रसादः, प्राचीन भारत के कलात्मक विनोद, बम्बई 1952 2. तिलकमंजरी, पृ० 362 3. कृतस्नेऽपि विद्याधरलोक इह लब्धपताका कलासु सकलास्वपि कोशलेन वत्सा तिलकमंजरी।
-वही, पृ० 363 4. वही, पृ० 10, 260 - . 5. वही, पृ० 264 6. तिलकमंजरी, पृ० 363