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तिलकमंजरी, का सांस्कृतिक अध्ययन
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सीत में वीणा-वादन सर्वाधिक लोकप्रिय था। मृच्छकटिक में कहा गया है कि वीणा असमुद्रेत्पन्नरत्न है, उत्कंठित की संगीनी है, उकताये हुए का विनोद है, पिरही का ढाढ़स है और प्रेमी का रागवर्धक प्रमोद है ।1 चित्रकला
विष्णुधर्मोत्तरपुराण (3,45,38) के चित्र-सूत्र में कहा गय है कि समस्त कलाओं में चित्रकला श्रेष्ठ हैं। प्राचीन ग्रन्थों में चार प्रकार के चित्रों का उल्लेख है-(1) विद्ध चित्र -जो इतना अधिक वास्तविक वस्तु से मिलता हो कि दर्पण में पड़ी परछाई के समान लगता हो, (2) अविद्ध चित्र जो काल्पनिक होते थे (3) रस चित्र जो भिन्न-भिन्न रसों की अभिव्यक्ति के लिए बनाये जाते थे तथा (4) धूलि चित्र ।
चित्र - अवलोकन एवं चित्रनिर्माण दोनों ही मनोरंजन के साधन थे। निपुग चित्रकार प्रसिद्ध रूपवती राजकन्याओं के चित्र बनाकर राजाओं को उपहार में देते थे, जिन्हें देखकर राजा अपना मनोरंजन करते थे। गन्धर्वक ने तिलकमंजरी का चित्र हरिवाहन को मेंटस्वरूप प्रदान किया तथा चित्रकला की दृष्टि से उसकी समुचित समीक्षा करने के लिए कहा। बिदग्धजनों की सभाओं में प्रसिद्ध राजकन्याओं के चित्र प्रस्तुत किये जाते तथा राजकुमार स्वयं भी उनकी समीक्षा करते तथा अन्य चित्रकलाविदों के साथ भी विशिष्ट चित्रों के विषय में विचार-विमर्श करते थे । समरकेतु द्वारा कांची में प्रसिद्ध राजकुमारियों के विद्धचित्रों को देखकर समय व्यतीत किया गया . 6
स्त्रियां एवं पुरुष अपने प्रेमी प्रेमिकाओं के चित्र बनाकर आना मनबहलाव करते थे । निलकमंजरी अत्यन्त निपुणतापूर्वक चित्रफलक पर हरिवाहन का चित्र बनाती थी । मलयसुन्दरी के ध्यान में पलकें मूदे समरकेतु चित्रफलक
1. शूद्रक, मृच्छकटिकम्, पृ. 3, 4
द्विवेदी, हजारीप्रसाद, प्राचीन भारत के कलात्मक विनोद, पृ, 64 3. कदाचिदंगनालोल इति निपुणचित्रकारैश्चित्र पटेण्वारोप्य सादरमुपायनी. कृतानि रूपातिशयशालिनीनामवनीपालकन्यकानां........दिवसमालोकयत् ।
. -तिलकमंजरी, पृ. 18 4, वही, पृ. 161 5. वही, पृ. 166, 177 6. वही, पृ. 322
तिलकमंजरी, पृ. 278, 296, 391 8. कदाचिदन्तिकन्यस्तविविधवर्तिकासमुद्रा ....देवस्यव रूपं विद्धममिलिखन्ती,
-वही, पृ. 391
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