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तिलकमंजरी का साहित्यक अध्ययन
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से हुआ है। जहां भी धनपाल को इस अलंकार के प्रयोग का अवसर मिला है, उन्होंने इसके प्रयोग में अपनी निपुणता का प्रदर्शन किया है।
वस्तुत: विरोध न होने पर भी विरोध की प्रतीति कराने वाले वर्णन को विरोधालंकार अथवा विरोधाभास का नाम दिया गया है1
तीन विशिष्ट उदाहरण दिये जाते हैं
(1) मेघवाहन को 'शत्रुघ्नोऽपि विश्रुतकीतिः' (पृ. 13) कहा गया है अर्थात् वह शत्रुघ्न होते हुए भी श्रुतकीर्ति से वियुक्त था (श्र तकीर्ति शत्रुघ्न की पत्नी थी), यह विरोध है, किन्तु 'वह शत्रुघ्न अर्थात् शत्रुहन्ता होते हुए भी विश्रुतकीर्ति अर्थात् अत्यधिक प्रसिद्ध था' इस अर्थ से इस विरोध का परिहार हो जाता है।
(2) इसी प्रकार अदृष्टसरोवर के प्रसंग में कहा गया है, कि वह लहरों से मनोहर होते हुए भी कुत्सित तरंगों से युक्त था (चारूकल्लोलमपिकूमि-पृ. 122) इस विरोध का परिहार कूर्मि अर्थात् कच्छपों से युक्त इस अर्थ से हो जाता है । अदृष्टसरोवर को 'स्थिरमपि विसारि' भी कहा गया है अर्थात् स्थिर होते हुए भी वह संचरणशील था, इसका परिहार-विसारि का अर्थ मत्स्ययुक्त लेने से हो जाता है।
(3) विद्याधर मुनि को 'निष्परिग्रमपि सकलत्रम्' (पृ. 24) कहा है अर्थात् स्त्रियों आदि से रहित होते हुए भी वह पत्नी सहित था, इस विरोध का परिहार 'सकलत्रम्' का सभी का त्राता अर्थ करने से हो जाता है।
विरोधाभास अलंकारयुक्त कुछ स्थलों को उदाहृत करना अनुचित नहीं होगा(1) प्रमाणविद्भिरप्यप्रमाणविद्यः ...... परोपकारिभिरात्मलामोद्यतः
-पृ. 10 (2) मनुष्यलोक इव गुणेरूपरिस्थितोऽपि मध्यस्थः सर्वलोकानाम्
विशेषज्ञोऽपि समदर्शन: सवदर्शनानाम्, अनायासगृहीतसकलशास्त्रा
र्थयाऽपि नीतिशास्त्रेषु खिन्नया-पृ. 13 (3) असंख्यगुणशालिनापि सप्ततन्तुस्पातेन सर्वदाह्मादितेन-पृ. 13 (4) सौजन्यपरतन्त्रवृत्तिरप्यसौजन्ये निषण्णः-पृ. 13 (5) अंगीकृतसतीव्रताभिरप्यसतीव्रताभिः-पृ. 9
1. विरोधः सोऽविरोधेऽपि विरुद्धत्वेन यद्धचः
-मम्मट, काव्यप्रकाश, 10/165