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तिलकमंजरी का साहित्यक अध्ययन
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तुल्ययोगिता
जहां उपमेय तथा उपमान में से एक ही के धर्म, गुण या क्रिया का एक बार उल्लेख किया जाय, वहां तुल्ययोगिता अलंकार होता हैं। इसमें या तो प्रकृत अथवा अप्रकृत का एक धर्म के साथ सम्बन्ध होता है।
कांची नगरी के वर्णन में तुल्योगिता अलंकार पाया जाता है -- यत्र नागवल्लीलालसा घनिन: उद्यानपालाश्च, परमतज्ञा पौराः प्रामाणिकाश्च, सफलजातयः श्रोत्रिया गृहारामाश्च, हरिद्रासान्द्ररूचकयो रागिणः सुवर्णचम्पक-स्तकबकनिचयाश्च प्रगुणविशिखा गृहनिवेशाः-पृ. 260 । यहाँ नागवल्लीलालसा यह एक साधारण धर्म, घनी तथा उद्यानपालक दोनों से सम्बद्ध है, अतः तुल्ययोगिता अलंकार है। इसी प्रकार अन्य सभी पर भी घटित होता है । व्यतिरेकः
__ उपमान से अन्य अर्थात् उपमेय का जो आधिक्य वर्णन है, वह व्यतिरेक अलंकार होता है।
हरिवाहन मलयसुन्दरी को देखकर कहता है-इसके दीर्घ नेत्र नीलकमल को पत्र समर्पित करते हैं, वक्षःस्थल हाथी के मस्तक का तिरस्कार करते हैं, कपोलस्थल हस्तीदन्त की अनुकृति हैं तथा इसके मुख की शोभा अपनी कान्ति से चन्द्रमा के बिम्ब को कलंकित करती है। यहां मलयसुन्दरी के नेत्र, वक्ष स्थल, कपोलस्थल तथा मुख का नीलकमल, हाथी के मस्तक, दांत तथा चन्द्रमा के बिम्ब से आधिक्य वर्णन किया गया है, अतः व्यतिरेक अलंकार है। विशेषोक्ति
कारणों के रहने पर भी फल का कथन न करना विशेषोक्ति कहलाता है । दो उदाहरण दिये जाते हैं
(1) अयोध्या वर्णन में कुलवधूओं के प्रसंग में विशेषोक्ति का कथन हैक्रोध में भी उनके मुख पर विकार उत्पन्न नहीं होता था, अप्रिय करने पर भी 1. नियतानां सकृद्धर्मः सा पुनस्तुल्ययोगिता ।
-मम्मट, काव्यप्रकाश 10/104 2. उपमानाद् यदन्यस्य व्यतिरेकः स एव सः
-वही, 10/158 दत्त पत्रं कुवलयततेरायतंचक्षुरस्याः कुम्भावभौ कुचपरिकरः पूर्वपक्षीकरोति । दन्तच्छेदच्छविमनुवदत्यच्छता गण्डमितेः चान्द्रं बिम्बं धुतिविलसितैर्दूषयत्यास्यलक्ष्मीः ॥ -तिलकमंरी, पृ. 256 विशेषोक्तिरखण्डेषु कारणेषु फलावचः ।
-मम्मट, काव्यप्रकाश, 10/162
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